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________________ प्रस्तावना इसके पहिले कि हम दक्षिण में गणित की प्रगति महावीराचार्य के ग्रंथ से प्रदर्शित करें, एक और नवीन खोज हमें आकर्षित कर लेती है। महावीराचार्य के सम्भवतः पूर्वकालीन, सुप्रसिद्ध धवलाकार वीरसेनाचार्य ने ईसा की सम्भवतः द्वितीय सदी के उद्भट आचार्य श्री पुष्पदंत और भूतबलि द्वारा रचित षटखंडागम ग्रंथों की धवला नामक टोका पूर्ण करने में अपना सारा जीवन अर्पित किया। यह ग्रंथमाला गत बीस वर्षों में ही डाक्टर हीरा लाल जैन प्रभृति विद्वानों द्वारा प्रकाश में लाई गई है। टीकाकार ने स्थान स्थान पर किन्हीं गणित ग्रंथों से, सूत्रों को उद्धृत किया है । डा. अवधेशनारायण सिंह द्वारा इस ग्रंथ के शांकव गणित के अतिरिक्त गणित की नवीन निम्नलिखित खोजें प्रकाश में लाई गई हैं, जिनका उपयोग जैन दर्शन के अध्ययन हेतु संभवतः ईसा की प्रारम्भिक 'शताब्दियों में प्रचलित हो गया होगा। प्रथम तो बडी बडी संख्याओं का उपयोग जिनको व्यक्त करने के लिये प्रतीक संकेतना अन्य ग्रन्थों में उपलब्ध है। जैसे,२ की तीसरी वर्गित सम्बार्गत राशि वह है जो २५६ में उसीका २५६ बार गुणन करने पर प्राप्त होती है। दूसरे सलागागणन अथवा लघुगणक (logarithm) का बृहत् उपयोग, जिसके आविष्कारक १७ वीं सदो के 'जान नेपियर' एवं 'जुस्त बर्जी' माने जाते हैं। तीसरे, अनन्त राशियों का गणित, जिसके विकास के लिये १९ वीं सदी में हुए जार्ज केंटर के प्रयत्न सुप्रसिद्ध हैं। जहाँ तक रेखागणित का सम्बन्ध है, यतिवृषभ (४००१, ६०० १ ईस्वी पश्चात् ) की तिलोय पणती में एवं वीरसेन की धवला टीका (डा. हीरालाल जैन द्वारा सम्पादित, पुस्तक ४) में सम्भवतः ईसा पूर्व के ग्रंथ अग्गयणिय, दिद्विवाद, परिकम्म, लोयविणिच्छय, लोय विभाग, लोगाइणि आदि में से उधृत गाथायें एवं उल्लेख महत्वपूर्ण हैं । इन दो ग्रंथों के ऐतिहासिक महत्वपूर्ण प्रकरणों में से कुछ ये हैं : दृष्टि वाद से जम्बूद्वीप की परिधि का माप, उपमा प्रमाण, विविध क्षेत्रों का घनफल निकालने की विधियाँ; बाण, जीवा, धनुष पृष्ठ आदि में सम्बन्ध, धनुषक्षेत्र का क्षेत्रफल, सजातीय तथा समक्षेत्र घनफल वाली आकृतियों का रूपान्तर एवं उनकी भुजाओं के बीच सम्बन्ध आदि । इस प्रकार धवलादि सिद्धान्त ग्रंथों में अलौकिक गणित का आधार लिया गया है. जिस पर अभी कोई ग्रंथ प्रकाश में नहीं आया है। लौकिक गणित के सम्बन्ध में सर्वप्रथम महावीराचार्य का यह गणित सारसंग्रह नामक ग्रंथ सम् १९१२ में सुप्रसिद्ध हुआ। महावीराचार्य का यह ९ अध्याय वाला ग्रंथ ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। इसकी खोज ने यह सिद्ध कर दिया कि भारत के सदर दक्षिण में भी उत्तर के विद्या केन्द्रों की तरह, विद्या के केन्द्र थे। इस सुदूर दक्षिण में, गणित के विज्ञान को बढ़ाने में उस समय प्रयत्न किया गया, जब कि उत्तरीय भारत में ब्रह्मगुप्त और भास्कर के समय के + इनके विस्तृत विवरण के लिये निम्नलिखित लेख देखियेSingh. A. N., History of Mathematics in India from Jain Sources; The Jain Antiquary Vol. XV, No. II. (1949), pp. 46-53; Vol. XVI, No. II, (1950) pp. 54-69. देखिये(१) लक्ष्मीचंद्र जैन, तिलोयपण्णत्ती का गणित, प्रस्तावना लेख ( जम्बूदोवपण्णत्तीसंगहो ), शोलापुर ( १९५८)। (२) टोडरमल, अर्थ संदृष्टि (गोम्मटसार), गांधी हरि भाई देवकरण जैनग्रंथमाला, कलकत्ता (प्रकाशन वर्ष उल्लिखित नहीं)
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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