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गणितसारसंग्रहः
ग्रासोनव्यासाभ्यां ग्रासे प्रक्षेपकः प्रकर्तव्यः । वृत्ते च परस्परतः संपातशरौ विनिर्दिष्टौ ॥ २३१३ ॥
अत्रोद्देशकः समवृत्तयोयोहि द्वात्रिंशदशीतिहस्तविस्तृतयोः। ग्रासेऽष्टौ को बाणावन्योन्यभवौ समाचक्ष्व ॥ २३२३ ॥
इति पैशाचिकव्यवहारः समाप्तः ॥ इति सारसंग्रहे गणितशास्त्रे महावीराचार्यस्य कृतौ क्षेत्रगणितं नाम षष्ठव्यवहारः समाप्तः ।
प्रतिच्छेदित होने वाले वृत्तों के ऐसे दो व्यासों के दो मानों की सहायता से, जिन्हें वृत्तों के अतिछादी ( overlapping ) भाग की सबसे अधिक चौड़ाई के मान द्वारा हासित करते हैं वृत्तों के अतिछादी भाग की महत्तम चौड़ाई के इस ज्ञात मान के संबंध में प्रक्षेपक क्रिया करना चाहिये । ऐसे व्रत्तों के संबंध में इस प्रकार प्राप्त दो परिणामों में से, प्रत्येक दूसरे का, अतिछादी वृत्तों संबंधी दो बाणों का माप होता है ॥ २३१३ ॥
उदाहरणार्थ प्रश्न दो वृत्तों के संबंध में, जिनके विस्तार-व्यास क्रमशः ३२ और ६० हस्त हैं । साधारण अतिछादी भाग की महत्तम चौड़ाई ८ हस्त है। यहाँ उन दो वृत्तों के संबंध में बाण रेखाओं के मानों को बतलाओ ॥ २३२३॥
इस प्रकार, क्षेत्र गणित व्यवहार में पैशाचिक व्यवहार नामक प्रकरण समाप्त हुआ।
इस प्रकार, महावीराचार्य की कृति सार संग्रह नामक गणित शास्त्र में क्षेत्रगणित नामक षष्टम् व्यवहार समाप्त हुआ।
(२३१३ ) इस नियम में अनुध्यानित प्रश्न आर्यभट्ट द्वारा भी साधित किया गया है। उनके द्वारा दिया गया नियम इस नियम के समान है।