SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना वेदांग ज्योतिष का एक युग ५ सौर वर्ष का होता था, जिसमें ६० सौर मास, २ अधिमास, ६२ चांद्र मास और १८३० अहोरात्र या सावन दिन समझे जाते थे। एक युग में १२४ पक्ष और एक पक्ष में १५ तिथियाँ मानी गई थीं। इस ग्रंथ के अतिरिक्त त्रिलोक प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति, चंद्रप्रज्ञप्ति और ज्योतिष करण्डक ग्रंथों में ग्रीकपूर्व जैन-ज्योतिष गणितीय विचार-धारा दृष्टिगत होती है। __ प्रोफेसर वेबर ( Weber ) के कथनानुसार सूर्य प्रज्ञप्ति ग्रंथ, वेदांग ज्योतिष के समान केवल धार्मिक कृत्यों के सम्पादन के लिये ही रचित नहीं हुआ, वरन् इसके द्वारा ज्योतिष की अनेक समस्याएँ सुलझाकर प्रखर प्रतिभा का परिचय दिया गया। ईसा से ४०० वर्ष पूर्व के पश्चात् हिन्दू गणित पुनरुद्धार हुआ। उस समय सूर्य सिद्धान्त और पैतामह सिद्धान्त लिखे गये। गणित दो भागों में विभक्त हुई. एक तो अंकगणित तथा बीजगणित और दूसरी ज्योतिष तथा क्षेत्रगणित । वैसे तो, बहुत पहिले से भारतीय गणना का आधार १० था। जब ग्रीक १०४ तक और रोमन १० तक के ऊपर की गणना जानते न थे, तब भारत में अनेक संकेतना स्थानों का ज्ञान था। ईसा से ५०० वर्ष पूर्व से ही शतकमान पर आधारित संख्याओं के नामों की श्रेणी को जारी रखने के प्रयत्न हो चुके थे । ईसा से १०० वर्ष पूर्व के ग्रंथ अनुयोग सूत्र में (२)१६ तक की संख्या का उपयोग हो चुका था। इसमें स्पष्ट रूप से २ को आधार चुना गया था। जब स्थान-मान का विकास हुआ तब इकाई से लेकर दशमलव मान पर संख्या को लिखने के लिये संकेतना स्थान दिये गये। शून्य प्रतीक* का उपयोग पिंगल ने ( ईसा से २०० वर्ष पूर्व १) अपने चाँदा सूत्र के छन्दों में किया है। ईसा के कुछ सदियों पश्चात् की ( बक्षाली गाँव की खुदाई से प्राप्त ) भोज पत्रों पर लिखित एक पोथी में भी अंक शैली का प्रयोग देखा गया है। इसमें गणना में शून्य का उपयोग हुआ है। शून्य प्रतीक सहित स्थान-मान संकेतना पद्धति, गणित के सभी आविष्कारकों द्वारा बुद्धि की प्रगति के लिये दिये गये अंशदान में उच्चतम कोटि की है। यह अभी तक अज्ञात है कि दशमलव स्थान-मान पद्धति का जन्मदाता कौन विद्वान्-विशेष अथवा ऋषि-मण्डल था । साहित्यक तथा पुरालेख-सम्बन्धी प्रमाणों से यह निश्चित किया गया है कि यह पद्धति २०० ई० पू० के लगभग भारतवर्ष में ज्ञात थी। इस नवीन पद्धति के प्रयोग का प्राचीनतम लिखित प्रलेख ५९४ ई० का गुर्जर का दान पत्र है। यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक प्रतीत होता है कि सेन्ट्रल अमेरिका के माया लोगों की तिथिपत्री में भी शून्य आया है । ये २० को आधार लेकर कोई स्थान-मान पद्धति का उपयोग करते थे। यह माया गणना ईसा से २०० से लेकर ६०० वर्ष बाद की मानी गई है। ईसा की पाँचवी सदी में जगत् प्रसिद्ध गणितज्ञ आर्यभट पटना में हुए। इनके पहिले पौलिश, रोमक, वाशिष्ठ, सौर और पैतामह नाम से ज्योतिष के पाँच सम्प्रदाय प्रचलित थे । रोमक सम्प्रदाय यूनानी भारतीय शून्य के आविष्कार के विस्तार के विषय में Encyclopaedia Britannica, vol. 23, p. 947, (1929) पर उल्लिखित लेख देखिये। .. स्थान-मान संकेतना के संबंध में न्युगेबाएर (Neugebauer) का अभिमत उल्लेखनीय है. It seem to me rather plausible to explain the decimal place value notation as a modification of the sexagesimal place yalue notation with which the Hindus became familiar through Hellenistic astronomy."-The exact Sciences in Antiquity. Provi. dence ( 1957), p. 189.
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy