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________________ -७. १३०३] क्षेत्रगणितव्यवहारः [२१७ क्षेत्रफलं कर्णसंख्यां च ज्ञात्वा भुजकोटिसंख्यानयनसूत्रम्कर्णकृतौ द्विगुणीकृतगणितं हीनाधिकं कृत्वा । मूलं कोटिभुजौ हि ज्येष्ठे ह्रस्वेन संक्रमणे ॥ १२७३ ॥ अत्रोद्देशकः आयतचतुरश्रस्य हि गणितं षष्टिस्त्रयोदशास्यापि । कर्णस्तु कोटिभुजयोः परिमाणे श्रोतुमिच्छामि ॥ १२८३ ।। क्षेत्रफलसंख्यां रजसंख्यां च ज्ञात्वा आयतचतुरश्रस्य भुजकोटिसंख्यानयनसूत्रम्रज्ज्वर्धवगैराशेर्गणितं चतुराहतं विशोध्याथ । मूलेन हि रज्ज्वधं संक्रमणे सति भुजाकोटी ॥ १२९३ ।। अत्रोद्देशकः सप्ततिशतं तु रज्जुः पश्चशतोत्तरसहस्रमिष्टधनम् । जन्यायतचतुरश्रे कोटिभुजौ मे समाचक्ष्व ।। १३०३ ।। जब आकृति का क्षेत्रफल और कर्ण का मान ज्ञात हो, तब आधार और लम्ब भुजा के संख्यात्मक मानों को प्राप्त करने के लिये नियम क्षेत्रफल के माप से दुगनो राशि कर्ण के वर्ग में से घटाई जाती है। वह कर्ण के वर्ग में जोड़ी भी जाती है । इस प्रकार प्राप्त अंतर और योग के वर्गमूलों से इष्ट लंब भुजा और आधार के माप प्राप्त हो सकते हैं, जबकि वर्गमूलों में से बड़ी राशि के साथ छोटी ( वर्गमूल राशि ) के संबंध में संक्रमण क्रिया की जावे ।।१२७॥ ___ उदाहरणार्थ प्रश्न किसी आयतक्षेत्र के संबंध में क्षेत्रफलका माप ६० है, और कर्ण का माप १३ है । मैं तुमसे लम्ब भुजा और आधार के मापों को सुनने का इच्छुक हूँ ॥१२॥ जब आयत क्षेत्र के क्षेत्रफल का तथा परिमिति का संख्यात्मक माप दिया गया हो, तब उस आकृति के संबंध में आधार और लम्ब भुजा के संख्यात्मक मानों को प्राप्त करने के लिये नियम परिमिति की अर्द्धराशि के वर्ग में से ४ द्वारा गुणित क्षेत्रफल का माप घटाया जाता है। तब इस परिणामी अंतर के वर्गमूल के साथ परिमिति की अर्द्धराशि के सम्बन्ध में संक्रमण क्रिया करने से इष्ट आधार और लंबभुजा सचमुच में प्राप्त होती है । ॥१२९॥ उदाहरणार्थ प्रश्न किसी प्राप्त आयत क्षेत्र में परिमिति का माप १७० है। दिये गये क्षेत्र का माप १५०० हैं। लंब भुजा और आधार के मानों को बतलाओ ।।१३०१॥ (१२७१) गाथा १२५१वीं के नोट के समान ही प्रतीक लेकर यहाँ दिया गया नियम निम्रलिखित रूप में निरूपित होता है:--दशानुसार { ( + व२ ) + २ अ ब+VIV अ + ब२)२ - २ अ ब } *२= अ अथवा च (१२९३) यहाँ भी, १२ अ २ व २३.२- अब } + २= अ अथवा ब, जैसी दशा हो। ग. सा. सं०-२८
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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