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________________ प्रस्तावना लाते थे । यहाँ की रेखा गणित की तीन बातें उल्लेखनीय हैं। प्रथम तो यह कि अर्द्धवृत्त का कोण समकोण होता है। दूसरी यह कि वे साध्य (कर्ण)२ (लम्ब) + (आधार)२, का उपयोग २० १६, १२ और १७, १५, ८ जैसी राशियों में कर चुके थे। तीसरी यह कि गणितीय विश्लेषणके उद्मों के चिन्ह, जैसे. समकोणिक त्रिभुजों के बराबर कोणों की संवादी भुजाएँ समानुपाती होती हैं। यह हुई बेबीलोन की प्रगति जिसके पश्चात् वहाँ के प्रगति चिन्ह नहीं मिलते । अब स्थल मार्ग से अरब देश को पारकर नील नदी के किनारे बसे मिस्र देश में चलिये। यह पिरेमिडों (स्तूपों) का विचित्र देश ईसा से प्रायः ४००० वर्ष पूर्व से लेकर २७८१ वर्ष पूर्व तक के पुरातत्व की सामग्री का भंडार है। बेबीलोन की तरह इस देश की सभ्यता का आधार कृषि था। इसका पता संभवतः ४२४१ वर्ष पूर्व के वहाँ के एक तिथिपत्र से चलता है जिसमें ३० दिन वाले १२ माह हैं, जिनमें ५ दिन जोड़ने से ३६५ दिन पूरे किये जाते हैं। इस ज्योतिर्विज्ञान हेतु वहाँ अंकगणित भी विकसित की गई। बेबीलोन की तरह इस देश के अभिलेख सुरक्षित रहे आये; क्योंकि एक तो यहाँ की जलवायु मरुस्थली थी, और दूसरे यहाँ मृतकों (बैल, मगर, बिल्ली और मानवों) के लिये बहुत मान्यता दी जाती थी। इसी कारण मिस्त्रियों ने आवश्यकतानुसार यह खोज निकाला कि निरर्थक “कलम के गूदे" (papyri ) से पवित्र मगरों की लाशों को ढूंस-ठूस कर भरने से उन्हें जीवित अवस्था का रूप देकर सुरक्षित रखा जा सकता है। इन्हीं पेपीरियों ( papy ri) द्वारा ज्ञात होता है कि मिस्री ईसा से प्रायः ३५०० वर्ष पर्व की अंकगणित में करोड़ों की संख्या का उल्लेख करते थे। इस तिथि की उनकी चित्रलिपि ( hieroglyphics) में वर्णन है कि १,२०,००० मानव, ४००,००० बैल और १,४२२,००० बकरे कैदी बनाये गये । गणना के बाद उन्होंने दशमलवपद्धति का अनुसरण किया, पर वह स्थान-मान ( place value) रहित थी। इसके पश्चात्, ईसा से १६५० वर्ष पूर्व की अंकगणित में गुणन भाग है। मिन्नों में 3 को विशेष प्रतीक द्वारा प्ररूपित किया गया है, अन्य भिन्नों को = सदृश रूप वाले भिन्नों के योग में हासित न किया गया है । प्रायः इसी समय की रिंड पेपिरस (Rhind papyrus) में 25 + + १ अंकित है। आमिस ( Ahmes ) ने - के सब भिन्नों को ( जहाँ न का मान ५ से लेकर १०१ तक है ) पूर्ववत् लिखा है। आगे ( ईसा से सम्भवतः २००० वर्ष पूर्व के एक प्रश्न से ) बीजगणित के उद्गम का आभास मिलता है, जो आजकल के प्रतीकों में कर + ख = १००; ख = क को हल करने के समान है। मिस्री लोगों ने इसे हल करने के लिये कूट स्थिति की रीति (rule of false position) का उपयोग किया है, जो ईसा की प्रायः १५ वीं सदी तक उपयोग में आती रही है। उन्हें समानुपात (proportion) ज्ञान भी था, जो गणितीय विश्लेषण का एक मुख्य आधार है। प्रायः इसी समय उन्होंने परिधि और व्या स की सूक्ष्म निष्पत्ति को और ३१६ बतलाया है । यद्यपि इस देश में पैथेगोरस के साध्य (५२ = ४२+३२ ) का कोई लिखित प्रमाण नहीं मिलता; तथापि उनके अवस्तरी रज्जुओं ( rope stret chers ) में ५, ४, ३ का अनुपात रहता था । व्यावहारिक मापों के विषय में कहा जाता है कि ईसा से प्रायः३००० वर्ष पूर्व भी मिस्रवासी पर्याप्त उन्नति कर चुके थे। इसके कई उदाहरण हैं। एक तो यह कि नदी के चारों ओर की ७०० मील जगह में उनके जल प्रमापी (water gauges) एक सतह में थे। दूसरा यह कि उन्हें त्रिभुज का क्षेत्रफल तथा बेलन आदि के शुद्ध आयतन निकालना
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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