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________________ गणितसारसंग्रह गणित इतिहास का सामान्य अवलोकन यह ज्ञात नहीं कि विश्व के किस प्रदेश में, कब और किसने यह सोचा कि संख्या और आकृति का ज्ञान सभ्य जीवन के लिये उतमा उपयोगी सिद्ध होगा जितनी कि भाषा । संख्या और आकृति, इन दो मुख्य धाराओं द्वारा गणित वर्तमान रूप में आई । प्रथम धारा अंकगणित और बीजगणित को लाई, तथा दूसरी धारा ज्यामिति को। सत्रहवीं सदी में ये दोनों मिलकर गणितीय विश्लेषण ( mathematical analysis ) रूपी अगम्य नदी के रूप में बदल गई। । ईसा मसीह से सैकड़ों सदियों पहिले विश्व के जो प्रदेश सभ्यता की चरम सीमा तक पहुँच सके उनमें प्रायः सबका इतिहास अज्ञात है, केवल वही देश इतिहास को बना सके जहां ऐतिहासिक सामग्रियां अभी तक हजारों वर्षों के विनाशकारी वातावरण से लोहा लेकर सुरक्षित चली आई। इन देशों में बिबीलोनिया ( बाबुल ), मिस्र और भारत विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। दजला और फरात नदियों के कछार के पश्चिमी भाग में स्थित झूलने वाले बगीचों के देश बेबीलोन (Babylon) में लगभग ईसा से प्रायः ५७०० वर्ष पूर्व के अभिलेख वहां की सभ्यता का प्रदर्शन करते हैं। उस काल में इस देश के निवासी अपने ज्ञान को मिट्टी की चक्रिकाओं, रम्भों (बेलनों) और त्रिसमपाश्वों में अंकित कर उन्हें पकाकर सुरक्षित रखते थे। उनके अध्ययन से ज्ञात होता है कि उनकी सभ्यता का आधार कृषि था, जिसके लिए उन्हें पंचांग (calendar) की आवश्यकता होती थी। उस सदी में उन्होंने अपने वर्षे का आरम्भ विषुवत बिन्दु ( vernal equinox ) से किया था। यह ज्ञान उन्होंने अपने पूर्व के देश सुमेर (Sumer) वासियों से सीखा होगा। ईसा से प्रायः २५०० वर्ष पूर्व सुमेर के व्यापारी वजन और मापों से परिचित थे । उन्हीं की गणना का मान बेबीलोन पहुँचा। वह मान षाष्ठिका (६० को आधार लेकर ) था, जिसमें दशमलव (१० को आधार लेकर प्राप्त हुई ) पद्धति का कुछ मिश्रण था। यह अनुमान लगाया जाता है कि १०, अंगुलियों को गिनने से और ६०, १० में १ गया होगा। ६ इसलिए चुना गया कि उससे उपयोगी भिन्नों को सरलता पूर्वक व्यक्त किया जा सकता था। ईसा से प्रायः २००० वर्ष पूर्व की अंकगणिति की सारिणियों में गुणन के सिवाय वर्गमूल तथा वर्ग और घन की सारिणियाँ भी थीं। न+नर की सारिणी का भी वे उपयोग करते थे, जहाँ न का मान १ से लेकर ३० तक था। इस प्रकार उनकी नैसर्गिक प्रवृत्ति फलनीयता (functionality) की ओर थी। उस समय यहाँ की बीजगणित में निरीक्षण और उपपत्ति दृष्टिगत नहीं है, पर समीकरणों का आंशिक हल दिया गया है। आजकल की पारिभाषिक शब्दावलि (terminology) में उन्होंने क्ष+अक्ष+ब= . को य + य =स के रूप में बदलकर हल किया, जिसमें उन्होंने य= तथा स = - अ रखकर अब से पूर्व समीकरण को गुणित किया । यदि परिणामी स धनात्मक है तो य के और क्ष के मान ( values )न+न की सारिणी से प्राप्त हो सकते हैं। उस समय के बाद इस क्रिया की पद्धति इटली की सोलहवीं सदी की बीजगणित में मिलती है। कुछ समीकरणों के सिवाय, उन्होंने दस अज्ञात वाले दस एकघातीय समीकरणों युक्त प्रश्नों के रूपों का हल भी किया है। उस काल की शांकव गणित में आयत, समकोण त्रिभुज, समद्विबाहु त्रिभुज आदि का क्षेत्रफल निकाला जा चुका था, और परिधि व्यास की निष्पत्ति ३ मानी जा चुकी थी। संभवतः यहाँ के निवासी सिंचाई और नहरों सम्बन्धी समस्याओं में आयतन, लम्ब वृत्तीय बेलन और लम्ब समपाश्वों के ठीक तरह साधित किये गये उदाहरणों को उपयोग में
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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