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________________ -६. २८६] मिश्रकम्यवहारः [ १६३ अत्रोद्देशकः यौकोचिद्वर्गीकृतराशी गुणितौ तु सैकसप्तत्या । सद्विश्लेषपदं स्यादेकोत्तरसप्ततिश्च राशी को। विगणय्य चित्रकुट्रिकगणितं यदि वेत्सि गणक मे ब्रहि ।। २८३ ॥ युतहीनप्रक्षेपकगुणकारानयनसूत्रम्संवर्गितेष्टशेषं द्विष्टं रूपेष्टयुतगुणाभ्यां तत् । विपरीताभ्यां विभजेत्प्रक्षेपौ तत्र हीनौ वा ॥२८४॥ अत्रोद्देशकः त्रिकपञ्चकसंवर्गः पञ्चदशाष्टादशैव चेष्टमपि । इष्टं चतुर्दशात्र प्रक्षेपः कोऽत्र हानिर्वा ॥२८५।। विपरीतकरणानयनसूत्रम्प्रत्युत्पन्ने भागो भागे गुणितोऽधिके पुनः शोध्यः । वर्गे मूलं मूले वर्गो विपरीतकरणमिदम् ।।२८६॥ उदाहरणार्थ प्रश्न दो अज्ञात वर्गित राशियों को ७१ द्वारा गुणित किया जाता है। इन दो परिणामी गुणनफलों के अंतर का वर्गमूल भी ७१ होता है। हे गणक, यदि चित्र कुट्टीकार से परिचित हो, तो गणना कर उन दो अज्ञात राशियों को मुझे बतलाओ ॥ २८२१-२८३ ॥ किसी दिये गये गुण्य और दिये गये गुणकार ( multiplier ) के सम्बन्ध में इष्ट बढ़ती या घटती को निकालने के लिये नियम ( ताकि दत्त गुणनफल प्राप्त हो) इष्ट गुणनफल और दिये गये गुण्य तथा गुणस्कार का परिणामी गुणनफल (इन दोनों गुणनफलों) के अंतर को दो स्थानों में लिखा जाता है। परिणामी गुणनफल के गुणावयवों में से किसी एक में १ जोड़ते हैं, और दसरे में इष्ट गुणनफल जोड़ते हैं। ऊपर दो स्थानों में इच्छानुसार लिखा गया वह अंतर अलग-अलग इस प्रकार प्राप्त होने वाले योगों द्वारा व्यस्त क्रम में भाजित किया जाता है। ये उन राशियों को उत्पन्न करते हैं, जो क्रमशः दिये गये गुण्य और गुणकार अथवा क्रमशः उनमें से घटाई जाने वाली राशियों में जोड़ी जाती हैं ॥ २८४ ॥ उदाहरणार्थ प्रश्न ३ और ५ का गुणनफल १५ है । इष्ट गुणनफल १८ है, और वह १४ भी है। गुण्य और गुणकार में यहाँ कौन सी तीन राशियाँ जोड़ी जाँय अथवा उनमें से घटाई जाँय ? ॥ २८५॥ विपरीतकरण (working backwards) क्रिया द्वारा इष्ट फल प्राप्त करने के लिए नियम जहाँ गुणन है वहाँ भाजन करना, जहाँ भाजन है वहाँ गुणन करना, जहाँ जोड़ किया गया है वहाँ घटाना करना, जहाँ वर्ग किया गया है वहाँ वर्गमूल निकालना, जहाँ वर्गमूल दिया गया है वहाँ वर्ग करना-यह विपरीतकरण क्रिया है ।। २८६ ।। ( २८४ ) जोड़ी जानेवाली और घटाई जानेवाली राशियाँ ये हैंद अब द अब द+ब भार अ+ क्योंकि (अ+ ) (ब+द न) = द, जहाँ अ और ब दिये गये गुणनखंड हैं, और - 'द+ब) द इष्ट गुणज है। १
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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