SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १५५ -६. २५२३ ] मिश्रकव्यवहार मार्गे त्रिभिर्वणिग्भिः पोट्टलकं दृष्टमाह तत्राद्यः । यद्यस्य चतुर्भागं लभेऽहमित्याह स युवयोर्द्विगुणः ॥ २४९ ॥ आह त्रिभागमपरः स्वहस्तधनसहितमेव च त्रिगुणः । अस्याधं प्राप्याहं तृतीयपुरुषश्चतुर्ग्रधनवान् स्याम् । आचक्ष्व गणक शीघ्रं किं हस्तगतं च पोट्टलकम् ॥ २५०३ ॥ याचितरूपैरिष्टगुणकहस्तगतानयनस्य सूत्रम्याचितरूपैक्यानि स्वसैकगुणवर्धितानि तैः प्राग्वत् । हस्तगतानां नीत्वा चेष्टगुणन्नेति सूत्रेण ॥ २५१३ ।। सहशच्छेदं कृत्वा सैकेष्टगुणाहृतेष्टगुणयुत्या । रूपोनितया भक्तान तानेव करस्थितान् विजानीयात् ॥ २५२३ ॥ कहा, “यदि मुझे इस थैली का धन मिल जाय, तो मैं अपने हाथ की रकम मिलाकर तुम सभी के कुलधन से दुगुने धनवाला हो जाऊँ।" दूसरे ने कहा, “यदि मुझे थैली का धन मिल जाय, तो उसे मिलाकर मैं तुम सभी के कुल धन से तिगुने धनवाला हो जाऊँ।" तीसरे ने कहा, "यदि मुझे थैली का आधा धन मिल जाय तो उसे मिलाकर मैं तुम दोनों के कुल धन से चौगुने धनवाला हो जाऊँ।" हे गणितज्ञ ! शीघ्र ही उनके हाथ की रकमें तथा थैलो की रकम अलग-अलग बतलाओ ॥२४९-२५०१॥ हाथ की ऐसी रकम निकालने का नियम, जो दूसरे से माँगे हुए धन में मिलने पर दूसरों के हाथ की रकमों का निर्दिष्ट अपवर्त्य बन जाती है: मांगी हुई रकमों को अलग-अलग निज की संगत, अपवर्त्य ( multiple) राशि में एक जोड़ने से प्राप्तफल द्वारा गुणित करते हैं। इन गुणनफलों की सहायता से गाथा २४१ में दिये गये नियम द्वारा हाथ की रकमों को प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार प्राप्त इन राशियों को साधारण हरवाली बनाते हैं। प्रत्येक एक द्वारा बढ़ाई गई अपवयं ( multiple ) राशियों द्वारा क्रमशः निर्दिष्ट अपवर्त्य राशियों को भाजित करते हैं। तब साधारण हरवाली राशियों को अलग-अलग इन प्राप्त फलों के एकोन योग द्वारा भाजित करते हैं। इन परिणामी भजनफलों को विभिन्न मनुष्यों के हाथों की रकमें समझना चाहिये ।। २५१५-२५२३ ।। ( २५१३-२५२३ ) बीजीय रूप से, [ [(अ + ब) (म + १) + म (स + द) (न + १) । - न+१ (अ+ब) (म+१)+म(इ + फ) (प+ १).......... प+१ ...+ इत्यादि-(श - २) (अ+ब) (म + १) } + (म + १) | (#+++44-१) इसी प्रकार ख, ग के लिये, इत्यादि। यहाँ अ, ब, स, द, इ, फ एक दूसरे से माँगी हुई रकमें हैं।
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy