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________________ मिश्रक व्यवहारः अत्रोद्देशकः कश्चिद्वणि फलार्थी षोडशवर्ण शतद्वयं कनकम् । यत्किंचिद्विनिमयकृतमेकाद्यं द्विगुणितं यथा क्रमशः || २०४ || द्वादशवसुनवदशकक्षयकं लाभो द्विरग्रशतम् । शेषं किं स्याद्विनिमयकांस्तेषां चापि मे कथय || २०५ || दृश्य सुवर्णविनिमय सुवर्णैर्मूलानयनसूत्रम् - विनिमयवर्णेनातं स्वांशं स्वेष्टक्षयन्नसंमिश्रात् । अंशैक्यनेनाप्तं दृश्यं फलमत्र भवति मूलधनम् ||२०६ || अत्रोद्देशकः -६. २०८ ] वणिजः कंचित् षोडशवर्णक सौवर्णगुलकमाहृत्य । त्रिचतुःपञ्चमभागान् क्रमेण तस्यैव विनिमयं कृत्वा ॥२०७॥ द्वादशदशवर्णैः संयुज्य च पूर्वशेषेण । मूलेन विना दृष्टं स्वर्णसहस्रं तु किं मूलम् ॥२०८॥ [ १४३ उदाहरणार्थ प्रश्न कोई व्यापारी लाभ प्राप्त करने का इच्छुक है, और उसके पास १६ वर्ण वाला २०० भार का स्वर्ण है । उसका एक भाग, १२, ८, ९ और १० वर्ण वाले चार प्रकार के स्वर्ण से बदला जाता है, जिनके भार ऐसे अनुपात में हैं जो १ से आरम्भ होकर नियमित रूप से २ द्वारा गुणित किये जाते हैं । इस बदले के व्यापार के फलस्वरूप स्वर्ण के भार में १०२ लाभ होता है । शेष ( बिना बदले हुए ) स्वर्ण का भार क्या है ? उन उपर्युक्त वर्णों के संगत ( corresponding ) स्वर्ण- प्रकारों के भारों कोभी बतलाओ, जो बदले में प्राप्त हुए हैं ॥२०४-२०५॥ जिसका कुछ भाग बदला गया है ऐसे स्वर्ण की सहायता से, और बदले के कारण बढ़ता देखा गया है ऐसे स्वर्ण के भार की सहायता से स्वर्ण की मूल मात्रा के भार को निकालने के लिये नियमबदले जाने वाले मूल स्वर्ण के प्रत्येक विशिष्ट भाग को उसके बदले के संगत वर्ण द्वारा भाजित किया जाता है । प्रत्येक दशा में, परिणामी भजनफल दिये गये मूल स्वर्ण के मन से चुने हुए वर्ण द्वारा गुणित किये जाते हैं; और तब ये सब गुणनफल जोड़े जाते स्वर्ण के विभिन्न भिन्नीय बदले हुए भागों के स्वर्ण के भार की बढ़ती को इस परिणामी शेष द्वारा भाजित किया जाय, होता है ॥ २०६ ॥ हैं। इस योग में से मूल योग को घटाया जाता है । अब यदि बदले के कारण तो मूल स्वर्ण धन प्राप्त उदाहरणार्थ प्रश्न किसी व्यापारी की १६ वर्ण सोने की भाग क्रमशः १२, १० और ९ वर्ण वाले स्वर्ण से के स्वर्णों के भारों को मूल स्वर्ण के शेष भाग लेखा में से हटाने से भार में १००० बढ़ती एक छोटी गेंद ली जाती है; तथा उसके 3, और दे बदल दिये जाते हैं । इन बदले हुए विभिन्न प्रकार जोड़ दिया जाता है । तब मूल स्वर्ण के भार को देखी जाती है । इस मूल स्वर्ण का भार बतलाओ में ॥२०७-२०८॥
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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