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________________ १४०] गणितसारसंग्रहः [६, १८९ पुनरपि द्वयनष्टवर्णानयनसूत्रम्एकस्य क्षयमिष्टं प्रकल्प्य शेष प्रसाधयेत् प्राग्वत्।। बहुकनकानामिष्टं व्येकपदानां ततः प्राग्वत् ।। १८९ ।। अत्रोद्देशकः द्वादशचतुर्दशानां स्वर्णानां समरसीकृते जातम् ।। वर्णानां दशकं स्यात् तद्वौ ब्रूहि संचिन्त्य ।। १९० ॥ अपराधस्योदाहरणम् सप्तनवशिखिदशानां कनकानां संयुते पक्कं । द्वादशवर्णं जातं किं हि पृथक पृथग्वर्णम् ॥ १९१ ।। परीक्षणशलाकानयनसूत्रम्परमक्षयाप्तवर्णाः सर्वशलाकाः पृथक् पृथग्योज्याः । स्वर्णफलं तच्छोध्यं शलाकपिण्डात् प्रपूरणिका ॥ १९२ ।। अत्रोद्देशकः वैश्याः स्वर्णशलाकाश्चिकीर्षवः स्वर्णवर्णज्ञाः । चक्रुः स्वणेशलाका द्वादशवर्णं तदाद्यस्य ।। १९३ ।। पुनः, जब मिश्रण का परिणामी वर्ण ज्ञात हो, तब दो ज्ञात मात्राओं वाले स्वर्णों के अज्ञात वर्णों को निकालने के लिये नियम दो दी गई मात्राओं के स्वर्ण में से एक के सम्बन्ध में वर्ण मन से चुन लो । जो निकालना शेष हो उसे पहिले की भाँति प्राप्त किया जा सकता है। एक को छोड़ कर समस्त प्रकार के स्वर्ण की ज्ञात मात्राओं के सम्बन्ध में वर्ण मन से चुन लिये जाते हैं, और तब पहिले की तरह अपनाई गई रीति से अग्रसर होते हैं ॥१८॥ उदाहरणार्थ प्रश्न क्रमशः १२ और १४ वजन वाले दो प्रकार के स्वर्ण को एक साथ गलाया गया, जिससे परिणामी वर्ण १० बना । उन दो प्रकार के स्वर्ण के वर्णों को सोचकर बतलाओ ॥१९॥ नियम के उत्तरार्द्ध को निदर्शित करने के लिये उदाहरणार्थ प्रश्न क्रमशः ७, ९, ३ और १० भारवाले चार प्रकार के स्वर्ण को गलाकर १२ वर्ण वाला स्वर्ण बनाया गया । प्रत्येक प्रकार के संघटक स्वर्ण के वर्गों को अलग-अलग बतलाओ ॥१९॥ स्वर्ण की परीक्षण शलाका की अर्हा का अनुमान लगाने के लिये नियम प्रत्येक शलाका के वर्ण को, अलग-अलग, दिये गये महत्तम वर्ण द्वारा विभाजित करना पड़ता है। इस प्रकार प्राप्त ( सभी) भजनफलों को जोड़ा जाता है। परिणामी योग शुद्ध स्वर्ण की इष्ट मात्रा का माप होता है। सभी शलाकाओं के भारों का योग करने पर, प्राप्त योगफल में से पिछले परिणामी योग को घटाते हैं। जो शेष बचता है वह प्रपूर्णिका ( अर्थात् निम्न श्रेणी की मिश्रित धातु ) की मात्रा होती है ॥१९२॥ उदाहरणार्थ प्रश्न स्वर्ण के वर्ण को पहिचानने वाले ३ व्यापारी स्वर्ण की परीक्षण शलाकाओं को बनाने के इच्छुक थे। उन्होंने ऐसी स्वर्ण-शलाकाएँ बनाई। पहिले व्यापारी का स्वर्ण १२ वर्ण वाला, दूसरे का
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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