SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११८] गणितसारसंग्रहः [६. ११५२ अन्तिम भाजन शृङ्खला के प्रथम भाजक द्वारा विभाजित करते हैं । (इस क्रिया में प्राप्त) शेष को (अधिक बड़े समूह वाचक मान सम्बन्धी) भाजक द्वारा गुणित करते हैं, और परिणामी गुणनफल में इस अधिकबड़े समूह वाचक मान को जोड़ देते हैं। (इस प्रकार दी गई समूह संख्या के इष्ट गुणक का मान प्राप्त किया जाता है, जो दो विचाराधीन विशिष्ट विभाजनों का समाधान करता है ) ॥११५६॥ आज इस विधि का भूल भूत सिद्धान्त ( rationale) निम्नलिखित विमर्श से स्पष्ट हो जावेगा( १ ) बाक + बापूर्णाक है; ( २ ) बाक + ब२ पूर्णाक है; और ( ३ ) बाकपूर्णाक है । आत आर (१) में मानलो क का अल्पतम मान%स, है। (२) में मानलो क का अल्पतम मान % सर है। (३) में मानलो क का अल्पतम मान =स, है । ( ४ ) जब (१) और (२) दोनों का समाधान करना पड़ता है, तब दआ, + स, को क्षआर +स, के तुल्य होना पड़ता है, ताकि स,-स, क्षआ,-दआ. हो: अर्थात . 111२/ आर =क्ष, हो। अज्ञात मानवाली राशियों द और क्ष सहित होने से अनिघृत (indeterminate) समीकरण (४) से, जैसा कि पहले ही सिद्ध किया जा चुका है उसके अनुसार, द के अल्पतम धनात्मक पूर्णाक को प्राप्त कर सकते हैं। द के इस मान को आ, द्वारा गुणित करने, और तब स, में जोड़ने पर क का मान प्राप्त होता है जो (१) और (२) का समाधान करता है। मानलो यह त, है, और इन दोनों समीकारों का समाधान करने वाला क का और अधिक बड़ा मान मानलो तर है। (५) अब, त, +नआ, त, है, (६) और, त, +मआर तर है। .. आप = म . इस प्रकार, आ, = म. प, और आ३ = न. प, जहाँ आ, ओर आर का आरन सबसे बड़ा साधारण गुणनखंड ( मह. समा.) प है। ::म = आग, और न = आर . (५) अथवा (६) में इनका मान रखने पर, त, + आ, आ२ = त, होता है । इससे स्पष्ट है कि क का दूसरा उच्चतर मान जो दो समीकरणों का समाधान करता है वह आ, और आर के लघुत्तम समापवर्त्य को निम्नतर मान में जोड़ने पर प्राप्त होता है। फिर से, मानलो तीनों सभी समोकारों का समाधान करने वाले क का मान व है। तब, व = त, + आ आ२ ४र, ( जहाँ र घनात्मक पूर्णाक है ) = ( मानलो) त, + लर और व = स + आ = त, + ल र , .:. र=ष आ + स-त, होगा। पिछले समीकार में वल्लिका कुट्टीकार के सिद्धान्त का प्रयोग करने पर ष का मान प्राप्त हो जाता
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy