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________________ -६. ८९३ ] मिश्रकव्यवहारः [ १०९ चत्वारि शतानि सखे युतान्यशीत्या नरैर्विभक्तानि । पश्चभिराचक्ष्व त्वं द्वित्रिचतुःपञ्चषड्गुणितैः ॥ ८६३ ॥ ____ इष्टगुणफलानयनसूत्रम्भक्तं शेषैर्मूलं गुणगुणितं तेन योजितं प्रक्षेपम् । तद्र्व्यं मूल्यघ्नं क्षेपविभक्तं हि मूल्यं स्यात् ।। ८७३ ।। अस्मिन्नर्थे पुनरपि सूत्रम्फलगुणकारैर्हत्वा पणान् फलैरेव भागमादाय । प्रक्षेपके गुणाः स्युराशिकः फलं वदेन्मतिमान् ॥ ८८३ ॥ ___अस्मिन्नर्थे पुनरपि सूत्रम्-, स्वफलहृताः स्वगुणघ्नाः पणास्तु तैर्भवति पूर्ववच्छेषः । इष्टफलं निर्दिष्टं त्रैराशिकसाधितं सम्यक् ॥ ८९३ ।। रकम ५ व्यक्तियों में २,३, ४, ५ और ६ के अनुपात में विभाजित की गई। हे मित्र ! प्रत्येक के हिस्से में कितनी रकम पढ़ी ? ॥ ८६३ ॥ इष्ट गुणफल को प्राप्त करने के लिये नियम--- मूल्यदर को खरीदने योग्य वस्तु (को प्ररूपित करने वाली संख्या) द्वारा विभाजित किया जाता है । तब इसे ( दी गई ) समानुपाती संख्या द्वारा गुणित करते हैं। इसके द्वारा, हमें योग करने की विधि से समानुपाती भागों का योग प्राप्त हो जाता है। तब दी गई राशि क्रमानुसारी समानुपाती भागों द्वारा गुणित होकर तथा उनके उपर्युक्त योगद्वारा विभाजित होकर इष्ट समानुपात में विभिन्न वस्तुओं के मान को उत्पन्न करती है। इसी के लिये दूसरा नियम मूल्यदरों (का निरूपण करने वाली संख्याओं) को क्रमशः खरीदी जाने वाली विभिन्न वस्तुओं के (दिये गये) समानुपातों को निरूपित करने वाली संख्याओं द्वारा गुणित करते हैं। तब फल को मूल्यदर पर खरीदने योग्य वस्तुओं की संख्याओं से क्रमवार विभाजित करते हैं। परिणामी राशियाँ प्रक्षेप की क्रिया में (चाहे हुए) गुणक ( multipliers) होती हैं। बुद्धिमान लोग फिर इष्ट उत्तर को त्रैराशिक द्वारा प्राप्त कर सकते हैं ॥४॥ इसी के लिये एक और नियम विभिन्न मूल्यदरों का निरूपण करने वाली संख्याएँ क्रमशः उनकी स्वसंबन्धित खरीदने योग्य वस्तुओं का निरूपण करनेवाली संख्याओं द्वारा गुणित की जाती हैं। और तब, उनकी संबन्धित समानुपाती संख्याओं द्वारा गुणित की जाती हैं। इनकी सहायता से, शेष क्रिया साधित की जाती है। इष्टफल त्रैराशिक निर्दिष्ट क्रिया द्वारा सम्यक रूप से प्राप्त हो जाता है ।। ४९३ ॥ १२० विभाजित की जाती है और परिणामी भजनफल ८ को अलग-अलग समानुपाती अंशों ६, ४, ३, २ द्वारा गुणित करते हैं। इस प्रकार प्राप्त रकमें ६४८ अर्थात् ४८, ४४८ अथवा ३२, ३४८ अर्थात् २४, २४८ अथवा १६ हैं । प्रक्षेप का अर्थ समानुपाती भाग की क्रिया भी होता है तथा समानुपाती अंश भी होता है। (८७३-८९१) इन नियमों के अनुसार ९०३ वीं और ९११ वीं गाथाओं का हल निकालने के लिये २,३ और ५ को क्रमशः ३, ५ और ७ से विभाजित करते हैं तथा ६,३ और १ द्वारा गुणित
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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