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________________ १०४ ] विमुक्तकालस्य मूलानयनसूत्रम् - स्कन्धं स्वकालभक्तं विमुक्तकालेन ताडितं विभजेत् । निर्मुक्तकालवृद्धया रूपस्य हि सैकया मूलम् ।। ६३ ।। अत्रोद्देशकः गणितसारसंग्रहः पञ्चकशतप्रयोगे मासौ द्वौ स्कन्धमष्टकं दत्त्वा । मासैः षष्टिभिरिह वै निर्मुक्तः किं भवेन्मूलम् ॥६४॥ द्वौ त्रिपञ्चभागौ स्कन्धं द्वादशदिनैर्ददात्येकः । त्रिकशतयोगे दशभिर्मासैर्मुक्तं हि मूलं किम् || ६५|| - वृद्धियुक्तहीन समानमूलमिश्रविभागसूत्रम् - कालस्वफलोनाधिकरूपो धृतरूपयोगहृतमिश्रे' । १ “मिश्रः" पाठ हस्तलिपियों में है; यहाँ व्याकरण की दृष्टि से मिश्र शब्द अधिक संतोषजनक है । ज्ञात अवधि में चुकाई जाने वाली किश्तों सम्बन्धी उधार दिये गये मूलधन को निकालने का नियम [ ५.६३ किश्त की रकम को उसकी अवधि द्वारा विभाजित करते हैं और कर्ज चुकाने के समय ( विमुक्ति काल ) द्वारा गुणित करते हैं। अब प्राप्त राशि को उस राशि द्वारा विभाजित करते हैं जो १ में १ पर कर्ज निर्मुक्ति समय के लिये लगाये हुए ब्याज को जोड़ने पर प्राप्त होती है । इस प्रकार मूलधन प्राप्त होता है ।। ६३ ।। उदाहरणार्थ प्रश्न ५ प्रतिशत प्रतिमास की दर से जब प्रत्येक किश्त की अवधि २ मास रही, और प्रत्येक बार में. ८ किश्त रूप में चुकाया गया तब एक मनुष्य ६० माह में ऋणमुक्त हुआ । बतलाओ उसने कितना धन उधार लिया था ? ।। ६४ ।। कोई व्यक्ति १२ दिनों में एक बार २३ किश्तरूप में देता है । यदि ब्याज दर ३ प्रतिशत प्रतिमास हो तो १० माह में चुकने वाले ऋण के परिमाण को बतलाओ ? ॥ ६५ ॥ (६३) प्रतीक रूप से, स प अ १ x अX बा आ x धा ऐसे विभिन्न मूलधनों को अलग-अलग निकालने के लिये नियम जो उनके मिश्रयोग में जब उन्हीं के व्याजों द्वारा मिलाये जाने पर अथवा उसमें से हासित किये जाने पर एक दूसरे के तुल्य हो जाते हैं ( सभी दत्त दशाओं में मूलधनों में ब्याज राशियाँ जोड़ी जाती हैं अथवा उनमें से घटायी जाती हैं ) - क्रमशः दी गई ब्याज दर के अनुसार, प्रत्येक दशा में, एक में उपार्जित ब्याज या तो मिलाया . जाता है अथवा एक में से हासित किया जाता है। तब, प्रत्येक दशा में, इन राशियों द्वारा एक को विभाजित किया जाता है। इसके पश्चात् विभिन्न उधार दिये गये धनों के मिश्रयोग को इन परिणामी भजनफलों के योग द्वारा विभाजित किया जाता है। और मिश्र योग सम्बन्धी इस तरह वर्ते गये उन उपर्युक्त भजनफलों के योग के संवादी समानुपाती भाग द्वारा अलग-अलग प्रत्येक दशा में उसे गुणित " १+ = ध; जहाँ स = किश्त ( स्कंध ) है प - किश्त का समय है और अ = ऋण के चुकने की अवधि है ।
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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