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________________ मिश्रकन्यवहारः [१०१ .. समानमूलवृद्धिमिश्रविभागसूत्रम्अन्योन्यकालविनिहतमिश्रविशेषस्य तस्य भागाख्यम। कालविशेषेण हृते तेषां मूलं विजानीयात् ॥४७॥ अत्रोद्देशकः पञ्चाशदष्टपञ्चाशन्मिश्रं षट्षष्टिरेव च । पञ्च सप्तैव नव हि मासाः किं फलमानय ।। ४८ ॥ त्रिंशञ्चैकत्रिंशद्वियंशाः स्युः पुनस्त्रयस्त्रिंशत् । सत्र्यंशा मिश्रधनं पश्चत्रिंशच्च गणकादात् ।।४।। कश्चिन्नरश्चतुर्णा त्रिभिश्चतुर्भिश्च पञ्चभिः षड्भिः । मासैलब्धं किं स्यान्मूलं शीघ्रं ममाचक्ष्व ॥५०॥ समानमूलकालमिश्रविभागसूत्रम्अन्योन्यवृद्धिसंगुणमिश्रविशेषस्य तस्य भागाख्यम् । वृद्धिविशेषेण हृते लब्धं मूलं बुधाः प्राहुः ।। ५१ ॥ अत्रोद्देशकः एकत्रिपञ्चमिश्रितविंशतिरिह कालमूलयोर्मिश्रम् । षड् दश चतुर्दश स्युाभाः किं मूलमत्र साम्यं स्यात् ।। ५२ ॥ मूलधन जो सब दशाओं में एकसा रहता है, और ( विभिन्न अवधियों के ) ब्याजों को, उनके मिश्रयोग में से अलग-अलग करने के लिये नियम- कोई भी दो दिये गये मिश्रयोगों को क्रमशः एक दूसरे के व्याज की अवधियों द्वारा गुणित करने से प्राप्त राशियों के अंतर द्वारा विभाजित करने पर जो भजनफल प्राप्त होता है वह उन दिये गये मिश्रयोगों सम्बन्धी इष्ट मूलधन है ॥४७॥ . उदाहरणार्थ प्रश्न मिश्रयोग ५०, ५८ और ६६ है और अवधियाँ जिनमें कि ब्याज उपार्जित हुए हैं, क्रमशः ५.. और 4 माह हैं । प्रत्येक दशा में ब्याज बतलाओ ॥४८॥ हे गणितज्ञ ! किसी मनुष्य ने ४ व्यक्तियों को क्रमशः ३, ४, ५ और ६ मास के अन्त में उसो मूलधन और ब्याज के मिश्रयोग ३०. ३१२ ३३. और ३५ दिये । मुझे शीघ्र बतलाओ कि यहाँ मूलधन क्या है ? ॥ ४९.५० ॥ मूलधन (जो प्रत्येक दशा में वही रहता हो) और अवधि (जितने समय में ब्याज उपार्जित किया गया हो) को उन्हीं के मिश्रयोग में से अलग-अलग करने के लिये नियम--. . कोई भी दो मिश्रयोगों को क्रमशः एक दूसरे के ब्याज द्वारा गुणित कर, प्राप्त राशियों के अन्तर को दो चुने हुए ब्याजों के अन्तर द्वारा विभाजित करने पर भजनफल के रूप में इष्ट मूलधन प्राप्त होता है, ऐसा विद्वान् कहते हैं ॥५१॥ ----------- उदाहरणार्थ प्रश्न मूलधन और अवधियों के मिश्रयोग २१, २३ और २५ हैं। यहाँ ब्याज ६, १० और १४ है। बतलाओ कि समान अहो वाला मूलधन क्या है ? ॥५२॥ दिये गये मिश्रयोग ३५, ३७ और ३९ हैं; (४७ ) प्रतीक रूप से, म, अ३ म. अ.. अ. अर (५१) प्रतीक रूप से, म, बमब, .. -ध, जहाँ म,, मन, आदि, विभिन्न मिश्रयोग है।
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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