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________________ गणित सारसंग्रहः द्विभक्तनवमांशकप्रहतसप्तविंशांशकः प्रमोदमवतिष्ठते करिकुलस्य पृथ्वीतले । विनीलजलदाकृतिर्विहरति त्रिभागो नगे वद त्वमधुना सखे करिकुलप्रमाणं मम ॥ ७१ ॥ साधूत्कृतेर्निवसति षोडशांशकस्त्रिभाजितः स्वकगुणितो वनान्तरे । पादो गिरौ मम कथयाशु तन्मितिं प्रोत्तीर्णवान् जलधिसमं प्रकीर्णकम् ॥ ७२ ॥ इति भिन्नदृश्यजातिः ॥ ८२ ] ४. ७१– ] इति सारसंग्रहे गणितशास्त्रे महावीराचार्यस्य कृतौ प्रकीर्णको नाम तृतीयव्यवहारः समाप्तः ॥ को उसी झुंड के भाग से गुणित करने तथा २ द्वारा विभाजित करने से प्राप्त फल प्रमाण के हाथी मैदान में प्रसन्न दशा में विष्ठे हैं। शेष ( बचा हुआ ) 3 भाग झुंड जो बादलों के समान अत्यन्त काले हाथियों का है, पर्वत पर क्रीड़ा कर रहा है । हे मित्र ! संख्यात्मक मान क्या है ? ॥ ७१ ॥ साधुओं के समूह का वां भाग ३ द्वारा विभाजित करने के पश्चात् स्व द्वारा गुणित ( अर्थात् ३ द्वारा गुणित ) करने से प्राप्त भाग प्रमाण वन के अन्तः भाग में रह रहा है; उस समूह का ( बच्चा रहने वाला ) है भाग पर्वत पर रह रहा है । हे प्रकीर्णक के प्रतीर्णवान् ! मुझे शीघ्रही साधुओं के समूह का संख्यात्मक मान बतलाओ । ॥७२॥ बतलाओ कि हाथियों के झुंड का म इस प्रकार, 'भिन्न दृश्य' जाति प्रकरण समाप्त हुआ । इस प्रकार, महावीराचार्य की कृति सारसंग्रह नामक गणित शास्त्र में 'प्रकीर्णक' नामक तृतीय व्यवहार समाप्त हुआ । क = ० से स्पष्ट है । (७१) 'पृथ्वी' शब्द जो इस गाथा में आया है, उसका अर्थ पृथ्वी है तथा यह उस छन्द का नाम भी है जिसमें यह गाथा संरचित हुई है ।
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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