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________________ -४.५] प्रकीर्णकव्यवहारः ___ तत्र भागजातिशेषजात्योः सूत्रम्भागोनरूपभक्तं दृश्यं फलमत्र भागजातिविधौ । अंशोनितरूपाहतिहृतमग्रं शेषजातिविधौ ॥ ४ ॥ भागजातावुद्देशकः दृष्टोऽष्टमं पृथिव्यां स्तम्भस्य व्यंशको मया तोये । पादांशः शैवाले कः स्तम्भः सप्त हस्ताः खे ॥५॥ षड्भागः पाटलीषु भ्रमरवरततेस्तत्रिभागः कदम्बे पादश्चूतद्रुमेषु प्रदलितकुसुमे चम्पके पश्चमांशः । भिन्नों पर विविध प्रश्नों में 'भाग' और 'शेष' भिन्नों सम्बन्धी नियम ... 'भाग' प्रकार (भाग प्रकार की प्रक्रियाओं) में, ज्ञात भिन्न से हासित १ के द्वारा दी गई राशि को भाजित कर चाहा हुआ फल प्राप्त किया जाता है। 'शेष' प्रकार की प्रक्रियाओं में, ज्ञात भित्रों को एक में से क्रमशः घटाने से प्राप्त राशियों के गुणनफल द्वारा दी गई राशि को भाजित कर इष्ट फल प्राप्त किया जाता है ॥४॥ ___ 'भाग' जाति के उदाहरणार्थ प्रश्न मेरे द्वारा एक स्तम्भ का भाग जमीन में पानी में काई में और ७ हस्त हवा में देखा गया। बतलाओ स्तम्भ की लम्बाई क्या है ? ॥५॥ श्रेष्ठ भ्रमरों के समूह में से पाटली वृक्ष में, कदम्ब वृक्ष में, आम्र वृक्ष में, ६ विकसित पुष्पों वाले चम्पक वृक्ष में, 3 सूर्य किरणों द्वारा पूर्ण विकसित कमल वृन्द में आनन्द ले रहे थे और एक मत्त भृङ्ग आकाश में भ्रमण कर रहा था। (४) 'भाग' प्रकार के सम्बन्ध में नियम बीजीय रूप से यह है : क = . जहाँ क अज्ञात समुच्चय राशि है, जिसे निकालना है; अ 'दृश्य' अथवा अग्र है; और, ब दिया गया भाग अथवा दिये 'भागाभ्यास' अथवा 'भाग सम्बर्ग' प्रकार में, कुल संख्या के कुछ भिन्नीय भागों के गुणनफल अथवा गुणनफलों को दो, दो के संचय में लेकर उन्हें कुल संख्या में से घटाने से प्राप्त शेष भाग का संख्यात्मक मान दिया गया होता है। 'अंशवर्ग' प्रकार में वे प्रश्न होते हैं जिनमें कुल में से भिन्नीय भाग का वर्ग ( जहां, यह भिन्नीय भाग दी गई संख्या द्वारा बढ़ाया अथवा घटाया जाता है) हटाने के पश्चात् शेष भाग का संख्यात्मक मान दिया गया होता है। 'मूलमिश्र' प्रकार में वे प्रश्न होते हैं जिनमें कुछ दी गई संख्याओं द्वारा घटाई या बढ़ाई गई कुल संख्या के वर्गमूल में कुल के वर्गमूल को जोड़ने से प्राप्त योग का संख्यात्मक मान दिया गया होता है ।... ___ 'भिन्न दृश्य प्रकार में कुल का भिन्नीय भाग, दूसरे भिन्नीय भाग द्वारा गुणित होकर, उसमें से हटा दिया जाता है और शेष भाग कुल के भिन्नीय भाग के रूप में निरुपित किया जाता है। यह विचारणीय है कि इस प्रकार में, अन्य प्रकारों की अपेक्षा शेष को कुल के भिन्नीय भाग के रूप में रखा जाता है।
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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