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________________ ४. प्रकोर्णक व्यवहारः प्रणुतानन्तगुणौघं प्रणिपत्य जिनेश्वर महावीरम् । प्रणतजगत्त्रयवरदं प्रकीर्णकं गणितमभिधास्ये॥१॥ 'विध्वस्तदुर्नयध्वान्तः सिद्धः स्याद्वादशासनः । विद्यानन्दो जिनो जीयाद्वादीन्द्रो मुनिपुङ्गवः ।।२।। इतः परं प्रकीर्णकं तृतीयव्यवहारमुदाहरिष्यामःभागः शेषो मूलकं शेषमूलं स्यातां जाती द्वे द्विरप्रांशमूले । भागाभ्यासोऽतोंऽशवर्गोऽथ मूलमिश्रं तस्माद्भिन्नदृश्यं दशामूः ।। ३॥ १ B और M में यह श्लोक छूटा हुआ है। ४. प्रकीर्णकव्यवहार [भिन्नों पर विविध प्रश्न ] स्तवनीय अनन्त गुणों से पूर्ण और नमन करते हुए तीनों लोकों के जीवों को वर देने वाले जिनेश्वर महावीर को नमस्कार कर मैं भिन्नों पर विविध प्रश्नों का प्रतिपादन करूँगा ॥१॥ जिन्होंने दुर्नय के अंधकार का विध्वंस कर स्याद्वाद शासन को सिद्ध किया है, जो विद्यानन्द हैं, वादियों में अद्वितीय हैं और मुनिपुंगव हैं ऐसे जिन सदा जयवंत हों। इसके पश्चात् , मैं तीसरे विषय ( भिन्नों पर विविध प्रश्न ) का प्रतिपादन करूँगा ॥२॥ भिन्नों पर विविध प्रश्नों के दस प्रकार हैं; भाग, शेष, मूल, शेषमूल, द्विरमशेषमूल, अंशमूल, भागाभ्यास, अंशवर्ग, मूलमिश्र और भिन्नदृश्य ॥३॥ (३) 'भाग' प्रकार में वे प्रश्न होते हैं जिनमें निकाली जानेवाली कुल राशि के कुछ विशिष्ट भिन्नीय भागों को हटाने के पश्चात् शेष भाग का संख्यात्मक मान दिया गया होता है। हटाये गये भिन्नीय भाग में से प्रत्येक 'भाग' कहलाता है और ज्ञात शेष का संख्यात्मक मान 'दृश्य' कहलाता है। 'शेष प्रकार में वे प्रश्न होते हैं जिनमें निकाली जानेवाली कुल राशि के ज्ञात भिन्नीय भाग को हटाने के पश्चात् अथवा उत्तरोत्तर शेष के कुछ ज्ञात भिन्नीय भाग हटाने के पश्चात् शेष भाग का संख्यात्मक मान दिया गया होता है। 'मूल' प्रकार में वे प्रश्न होते हैं जिनमें कुल राशि में से कुछ भिन्नीय भाग अथवा उस कुल राशि के वर्गमूल का गुणक घटाने के पश्चात् शेष भाग का संख्यात्मक मान दिया गया होता है। 'शेषमूल', 'मूल से केवल इस बात में भिन्न है कि यह वर्गमूल पूरी राशि के स्थान में उसका वर्गमूल होता है जो दिये गये भिन्नीय भागों को घटाने के पश्चात् शेष रूप में बचता है। द्विरग्र शेषमूल' प्रकार में वे प्रश्न होते हैं जिनमें ज्ञात वस्तुओं की संख्या पहिले हटाई जाती है; तब उत्तरोत्तर शेष के कुछ भिन्नीय भाग और तब अग्र शेष के वर्गमूल का कोई गुणक हटाया जाता है; और अन्त में, शेष भाग का संख्यात्मक मान दिया गया होता है। प्रथम हटाई गई ज्ञात संख्या पूर्वाग्र कहलाती है। 'अंशमूल' प्रकार में कुल संख्या के भिन्नीय भाग के वर्गमूल के एक गुणक को हटाया जाता है और तब शेष भाग का संख्यात्मक मान दिया गया होता है।
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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