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________________ गणित सारसंग्रहः अत्रोद्देशकः भाववार्धिभुवनानि पदान्यम्भोधिपञ्च मुनयस्त्रिहृतास्ते । उत्तराणि वदनानि कति स्युर्युग्म संकलित वित्तसमेषु ||४४ || इति भिन्नसंकलितं समाप्तम् । भिन्नन्युत्कलितम् ४६ ] [ ३. ४४– भिन्नव्युत्कलिते करणसूत्रं यथा गच्छाधिकेष्टमिष्टं चयहतमूनोत्तरं द्विहादियुतम् । शेषेष्टपदार्धगुणं व्युत्कलितं स्वष्टवित्तं च ||४५ || शेष गच्छ स्याद्या नयनसूत्रम् - प्रेचयार्घोनः प्रभवो युतश्चयध्नेष्टपदचयार्थाभ्याम् । शेषस्य पदस्यादिश्चयस्तु पूर्वोक्त एव भवेत् ॥४६॥ गुणगुणतेsपि चयादी तथैव भेदोऽयमत्र शेषपदे । इष्टपदमितगुणाइतिगुणितप्रभवो भवेद्वक्वम् ||४७|| १ M प्रचयगुणितेष्टगच्छस्सादिः प्रभवः पदस्य शेषस्य । पूर्वोक्तः प्रचयस्स्यादिष्टस्य प्राक्तनादेव ॥ उदाहरणार्थ प्रश्न पदों की संख्या क्रमशः ५, ४ और ३ है । साधारण निष्पत्ति तथा बराबर प्रचय क्रमशः 3, और हैं । इन समान योग वाली गुणोत्तर तथा समान्तर श्रेढियों के संवादी प्रथम पदों की अर्हाओं ( values ) को निकालो ॥ ४४ ॥ इस प्रकार, कलासवर्णं व्यवहार में, संकलित नामक परिच्छेद समाप्त हुआ । भिन्न व्युत्कलित [ श्रेढिरूप भिन्नों का व्युत्कलन ] भिन्न व्युत्कलित क्रिया को करने का नियम निम्नलिखित है श्रेढि में कुल पदों की संख्या को चुने हुए पदों की संख्या में सम्मिलित करो और स्वयं चुनी हुई पदों की संख्या को अलग से लो । इन राशियों में से प्रत्येक को प्रचय द्वारा गुणित करो और गुणनफलों को प्रचय द्वारा हासित करो तथा दो द्वारा गुणित करो। इन परिणामी राशियों को जब क्रमशः शेषपदों की संख्या की आधी राशि और पदों की चुनी हुई संख्या की आधी राशि द्वारा गुणित करते हैं तब क्रम से शेष श्रेढि का योग तथा श्रेढि के चुने हुए भाग का योग प्राप्त होता है ॥ ४५ ॥ शेष गच्छ सम्बन्धी प्रथम पद को निकालने के लिये नियम — ढि का प्रथमपद, प्रचय की आधी राशि द्वारा हासित होकर और प्रचय द्वारा गुणित चुनी हुई पदों की संख्या द्वारा मिलाया जाकर तथा प्रचय की आधी राशि द्वारा भी मिलाया जाकर शेष श्रेढि के शेष पदों की संख्या के प्रथम पद को उत्पन्न करता है। प्रचय शेष श्रेढि का होता है ॥ ४६ ॥ गुणोत्तर श्रेढि के ठीक वैसे ही होते हैं जैसे कि दी हुई श्रेढि और उसके पद में साधारण निष्पत्ति को उतने बार गुणित करते हैं है। प्राप्त गुणनफल शेष श्रेढि का प्रथमपद होता है। प्रथमपद में यही अंतर होता है ||४७|| जैसा प्रचय दी हुई श्रेढि में होता है वैसा ही विषय में भी, साधारण निष्पत्ति और प्रथमपद चुने हुए भाग में होते हैं। दी हुई श्रेढि के प्रथम जितनी कि चुनी हुई पदों की संख्या होती शेष श्रेढि के प्रथमपद और दी हुई श्रेढि के (४५) द्वितीय अध्याय की १०६ वीं गाथा का नोट देखिये । (४६) द्वितीय अध्याय की १०९ वीं गाथा का नोट देखिये । (४७) द्वितीय अध्याय की ११० वीं गाथा का नोट देखिये ।
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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