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________________ -३. ५३ ] कलासवर्णव्यवहारः गुणसंकलितान्त्यधनानयने तत्संकलितानयने च सूत्रम्गुणसंकलितान्त्यधनं विगतैकपदस्य गुणधनं भवति । तहुणगुणं मुखोनं व्ये कोत्तरभाजितं सारम् ॥४१॥ अत्रोद्देशक: प्रभवोऽष्टमश्चतुर्थः प्रचयः पञ्च पदमत्र गुणगुणितम् । गुणसंकलितं तस्यान्त्यधनं चाचक्ष्व मे शीघ्रम् ॥४२॥ गुणधनसंकलितधनयोराद्युत्तरपदान्यपि पूर्वोक्तसूत्रैरानयेत् । ___समानेष्टोत्तरगच्छसंकलितगुणसंकलितसमधनस्याद्यानयनसूत्रम्मुखमेकं चयगच्छाविष्टौ मुखवित्तरहितगुणचित्या। हृतचयधनमादिगुणं मुखं भवेद्विचितिधनसाम्ये ॥४३॥ १ केवळ B में प्राप्य । गुणोत्तर श्रेढि का अन्तिमपद तथा योग निकालने के लिये नियम गुणोत्तर श्रेढि का अंत्यधन अथवा अंतिम पद, दूसरी ऐसी ही श्रेढि का गुणधन होता है जिसमें पदों की संख्या एक न्यून होती है। यह अंत्यधन साधारण निष्पत्ति द्वारा गुणित होकर और प्रथम पद द्वारा हासित होकर तथा एक कम साधारण निष्पत्ति द्वारा भाजित होकर श्रेढि के योग को उत्पन्न करता है ॥४१॥ उदाहरणार्थ प्रश्न गुणोत्तर श्रेढि के सम्बन्ध में प्रथमपद है है, साधारण निष्पत्ति १ है और पदों की संख्या ५ है । मुझे शीघ्र बतलाओ कि श्रेढि का योग तथा अंतिम पद क्या क्या हैं ? ॥४२॥ समान योग वाली दो समान्तर एवं गुणोत्तर श्रेढि के उभय साधारण प्रथम पद को निकालने के लिये नियम, जब कि उनकी चुनी हुई पदों की संख्या बराबर हो और इसी तरह से वरण किये गये प्रचय और साधारण निष्पत्ति बराबर हों प्रथम पद को एक लेते हैं, पदों की संख्या और साधारण निष्पत्ति तथा प्रचय मन से कुछ भी चुन किये जाते हैं । यहां उत्तर धन को गुणोत्तर श्रेढि के योग में से आदि धन को घटाने से प्राप्त हुई राशि द्वारा भाजित करते हैं । इसे चुने हुए प्रथम पद से गुणित करने पर, इन दोनों श्रेढियों के सम्बन्ध में चाहा हुआ उभयसाधारण प्रथमपद उत्पन्न होता है ॥४३॥ (४१) द्वितीय अध्याय की ९५ वीं गाथा का नोट देखिये। [ पिछले अध्याय में कथित नियमों द्वारा गुणधन और श्रेदि के योग के सम्बन्ध में गुणोत्तर श्रेदि के प्रथमपद, साधारण निष्पत्ति और पदों की संख्या निकाली जा सकती हैं। इन नियमों के लिये अध्याय २ की ८७, ९७, १०१ और १०३ वीं गाथायें देखिये। ] (४३) आदि धन और उत्तरधन के लिये ६३ और ६४ वीं गाथायें (अध्याय २ देखिये । यह नियम प्रतीक रूप से इस तरह साधित होता है-अ = १ न(न- १)xब} {(रन-११-नx१ } जहाँ ब = र है। सरल साधन के हेतु प्रथमपद को १ चुन लिया जाता है, परंतु स्पष्ट है कि कोई राशि पहिले इस तरह मानी जा सकती है। आदि धन और उत्तरधन के द्वारा नियम के कथन को सरल बनाने के लिये यहाँ प्रथमपद को मान लिया गया है। यहां प्राप्त सूत्र गुणोत्तर श्रेदि के योगसूत्र और समान्तर श्रेढि के सूत्र को समीकार रूप में लिखने से मिला है। यहां ध्यान देने योग्य शब्द चय है जिसका उपयोग गुणोत्तर और समान्तर श्रेढि, दोनों के क्रमशः साधारण निष्पत्ति और प्रचय के लिये किया गया है।
SR No.090174
Book TitleGanitsara Sangrah
Original Sutra AuthorMahaviracharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain, L C Jain
PublisherJain Sanskriti Samrakshak Sangh
Publication Year1963
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, & Maths
File Size35 MB
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