________________
कलासवर्णव्यवहारः
[४७
अत्रोद्देशकः पादोत्तरं दलास्यं पदं त्रिपादांशकःसमुद्दिष्टः । स्वेष्टं चतुर्थभागः किं व्युत्कलितं समाकलय ॥४८॥ प्रभवोऽधं पञ्चांशः प्रचयो द्वित्र्यंशको भवेद्गच्छः । पञ्चाष्टांशःस्वेष्टं पदमृणमाचक्ष्व गणितज्ञ ॥४९॥ आदिश्चतुर्थभागः प्रचयः पञ्चांशकत्रिपश्चाशः। गच्छो वाल्छागच्छो दशमो व्यवकलितमानं किम् ॥५०॥ त्रिभागौ द्वौ वक्रं पञ्चमांशश्चयःस्यात् पदं त्रिघ्नः पादः पञ्चमःस्वेष्टगच्छः । षडंश:सप्तांशो वा व्ययः को वद त्वं कलावास प्रज्ञाचन्द्रिकाभास्वदिन्दो ॥५॥ द्वादशपदं चतुर्थर्णोत्तरम?नपश्चकं वदनम् । त्रिचतुःपञ्चाष्टेष्टपदानि व्युत्कलितमाकलय ॥५२॥
गुणसंकलितव्युत्कलितोदाहरणम् । द्वित्रिभागरहिताष्टमुखं द्वित्र्यंशको गुणचयोऽष्ट पदं भोः। मित्र रत्नगति पश्चपदानीष्टानि शेषमुखवित्तपदं किम् ॥५३॥
इति भिन्नव्युत्कलितं समाप्तम् ।
१M च चतुर्भागः। २ M किं व्युत्कलितं समाकलय ।
३K और M में इसके पश्चात् "इति सारसङ्घहे महावीराचार्यस्य कृतौ द्वितीयव्यवहारस्समाप्त" जोड़ा गया है । यह वास्तव में भूल प्रतीत होती है।
उदाहरणार्थ प्रश्न दी हुई श्रेढि में प्रचय है, प्रथमपद ३ है, पदों की संख्या है है और चुनी हुई पदों की ( हटाई जाने वाली ) संख्या १ है। ऐसी श्रेढि की शेष श्रेढि का योग निकालो ॥४८॥ समान्तर श्रेढि के सम्बन्ध में प्रथमपद है. प्रचय है और पदों की संख्या ३ है। यदि हटाये जाने वाले पदों की संख्या है तो हे गणितज्ञ, शेष श्रेढि का योगफल बताओ ॥४९॥ दी हुई श्रेढि में प्रथमपद १ है, प्रचय ६ है और पदों की संख्या ६ है । यदि चुनी हुई पदों की संख्या हो तो शेष श्रेढि का योगफल बतलाओ ॥५०॥ प्रथमपद ३ है, प्रचय ६ है, पदों की संख्या है और चुनी गई पदों की संख्या ६, अथवा है । हे चंद्रमा के प्रकाश रूपी बुद्धि से चमकते हुए चंद्रमा कि भांति कला के वास ! मुझे बतलाओ कि शेष पदों की संख्या का योग क्या होगा ? ॥५१॥ दी हुई श्रेढि के पदों की संख्या १२ है, प्रचय-2 (ऋण) है और प्रथमपद ४३ है तथा चुनी गई पदों की संख्याएं क्रमशः ३, ४, ५ अथवा ८ हैं । शेष पदों की संख्या का योगफल अलग-अलग निकालो ॥५२॥
गुणोत्तर श्रेढि में व्युत्कलित् का उदाहरणार्थ प्रश्न प्रथमपद ७१ है, साधारण निष्पत्ति है और पदों की संख्या ८ है। चुनी हुई पदों की संख्याएं क्रमशः ३,४,५ हैं। बतलाओ कि शेष श्रेढियों के सम्बन्ध में प्रथमपद, योग और पदों की संख्या क्या-क्या है ? ॥५३॥
इस प्रकार, कलासवर्ण व्यवहार में, भिन्न व्युत्कलित् नामक परिच्छेद समाप्त हुआ। (५१) कला के यहाँ दो अर्थ हैं-प्रथम तो ज्ञान और अन्य "चंद्रमा के अंक"।