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मैंना सुन्दरी चुप, निस्पन्द बैठी रही । उसकी उँगली, एक दूर्वादल को दुलारती रहीं। देर तक मौन न टूटा, तो महाराज ने फिर कहा :
मुहूर्त-क्षण आ गया पना, चुनाव करो । किसी पट्ट-महिषी का सिंहासन तुम्हारे वरण का प्रार्थी है !"
'चुननेवाला मै कौन होता हूँ, तात । महारानी तो भीतर बैठी हैं. बाहर कहीं नहीं । कर्तृत्व उन्हीं का है, मेरा नहीं। मैं केवल उनकी वाहिनी
"ये भीतर कौन महारानी वैठी हैं :
"आत्मा की सुन्दरी का राज्य सर्वथा मुक्त है, महाराज ! वह चितिशक्ति परम स्वतन्त्र है। अपने परिणमन की वह स्वामिनी है।''
"तो वह तुमसे भिन्न, और कोई है क्या ?"
'भिन्न भी है, अभिन्न भी। यह प्रकट की रूपसी पैना, वह सम्पूर्ण नहीं, उसकी एक तरंग मात्र है।''
"तो पूछो अपनी अन्तवासिनी से. वे किसे चुनती हैं " "उनके उपादान की राह जो भी आएगा।" ''यह उपादान और क्या बला है, मैना ?"
"अपनी ही आत्म-शक्ति, अपनी आन्तरिक सम्भावना। अपने ही अनन्त परिणमन की योग्यता।'
"तो वह तो तुम्हारे वश को है, तुम्हारी अपनी हो वस्तु । तुम्हारा ही आत्म-द्रव्य । उसमें किसी और से क्या पूछना है ..."
"पूछना किसी से नहीं है, मुझे अपने ही सहज स्वरूप में घटित होते रहना है । चुनाब मुझे करना नहीं होगा, वह अपनेआप ही मेरे भीतर होगा : और तब मैना के नियोगी पुरुष स्वयं ही उसके द्वार पर आ खड़े होंगे।''
"वह तो चरम अहंकार हुआ, मैना। निमित्त भी तो मिलाना पड़ता है। तुम भी तो कुछ चाहोगी, तभी तो पाओगी। तुम झुकोगी, तभी तो कोई आकर तुम्हें उठाएगा। तुम्हें भी तो अभिलाषा करनी होगी, खोजना होगा। तभी तो तुम्हारी चाहत का पुरुष तुम्हारी राह आएगा।"
100 : एक और नीलांजना