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लिया है, और उन्हें अपने आँसुओं और चुम्बनों में नहला रहा है। इसके प्यार को देखकर, मेरा 'वज्रादपि कठोराणि मृदनि कुसुमादपि' हृदय पसीज उठा है।
.....अरे यह क्या देख रहा हूँ : निरंजन-निराकार सिद्ध-परमेष्ठी नेमिनाथ अपने सिद्धासन पर अनायास रूप में प्रकट हो उठे हैं : उद्बोधन का हाथ उठाकर वे 'तथास्तु' कहकर मेरे आशीर्वाद का समर्थन कर रहे हैं।
देखकर, इस कवि-कुमार के आनन्द का पार नहीं। मैं इस लड़के का आभारी हूँ, नेमी, कि इसके निमित्त से तुम्हें यह पत्र लिखकर, अपनी लोकाभ्युदय की यात्रा में नया कदम उठा सका हूँ। तुझे प्यार करूँ; या प्रणाम करूँ, मेरे लिए क्या अन्तर पड़ता है।
तुम्हारा अभिन्न वासुदेव कृष्ण
19 जून, 1971)
98 : एक और नीलांजना