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जाना पड़ेगा। अन्तिम सत्य मृत्यु नहीं, जीवन है, अनन्त जीवन ।
यह सच है कि मौजूदा प्रजातन्त्र सर्वत्र एक छलावा हैं। सचाई से उसका कोई सरोकार नहीं वह एक मुखौटा है, खूबसूरत ओट है, कुछ समर्थों और शक्तिशालियों के न्यस्त-स्वार्थी, हितों और व्यवस्था को निर्वाध जारी रखने का सुरक्षा-दुर्ग है। माना कि आज की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व्यवस्था और तथाकथित धार्मिकता और नैतिकता कोटि-कोटि निर्बल मानवों के विरुद्ध, मुट्ठी भर शक्तिमान् सत्ता सम्पत्ति स्वामियों का एक अमानुषिक षड्यन्त्र है। लेकिन क्या कविता में उसे कलात्मक गालियाँ देने से, और उस पर व्यंग्य - आक्रमण करने में सारी सृजनात्मकता को चुका देने से ही, उसका उन्मूलन हो जाएगा मौजूदा व्यवस्था का जो पेशाचिक पंजा, मानव की सन्तानों को नित प्रत बनायें दे रहा है, उनको आत्माओ को असूझ अन्धकारों में भटकाये दे रहा है, उसका अपनी कला में सशक्त व्यंग्य-विद्रूपात्मक चित्रण मात्र ही क्या साहित्य की इति श्री है ? वह भी ऐसा साहित्य, जिसे लेखक लिखे, और केवल लेखक-बिरादरी पढ़े, और 'अहो रूपमहो ध्वनिः' करती रहे। इस बीभत्सता का वह सचोट अनावरण और सृजनात्मक बोध क्या उन मानवों तक पहुँच पाता है, जो सच्चे अर्थ में जीवन की नंगी और कुरूप धरती पर इस नरक को भांग रहे हैं ? बल्कि सचाई यह है कि जो सीधे भुक्तभोगी हैं, वे ही इस नर्मकदयंता के सच्चे साक्षात्कारी हैं। हमारा यह तमाम कलात्मक अनावरण उसके आगे छोटा पड़ जाता है। उनके लिए उनका कष्ट निरा कला-विलास नहीं। उनके लिए वह मृत्यु की रक्ताक्त चट्टान है, और वही जिन्दा रहने के लिए सच्चे अर्थ में उससे जूझते हुए अविश्रान्त युद्ध कर रहे हैं
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जड़त्व और अन्धकार की इन नकारात्मक शक्तियों के विरुद्ध सतत युद्ध जारी रखने के लिए, जो सर्जक आत्मज्ञान, आत्मप्रकाश और आत्मशक्ति का अचूक शस्त्र युगान्तरों में मानव-प्रजाओं को दे गये हैं, उन्हीं का साहित्य चिरंजीवी और कालजयी होकर आज भी जीवित है। सहस्राब्दियों पूर्व लिखा
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