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नहीं ? यदि है तो मेरे इस पौराणिक कथा-सृजन ने उसमें बेशक ऐसी सिद्धि प्राप्त की है, जिसका मुझे भी अभी पूरा अन्दाज नहीं है। निश्चय ही एक नित-नय, चिर प्रगतिमान नूतन चेतना और मनुष्य के सृजन की दिशा में मेरे इस विनम्र कृतित्व ने किसी कदर सफलता पायी है। आज का आलोचक चाहे तो इसे ही मेरे साहित्य की विफलता मानने को स्वतन्त्र हैं। माकमान इस तफलता के सचोट साक्षी हैं ही। लेकिन असलियत क्या है, उसका निर्णय तो महाकाल की धारा ही करेगी।
बेवजह बौद्धिक घुमाव-फिराय और उक्ति-वैचित्र्य की कलाबाजियों से बात को उलझाना मेरी आदत नहीं। मेरे पन सृजन वह, जो भावक की अब तक अस्पष्ट गइराइयों को हिला दे, उनमें निहित सम्भावनाओं को ऊपर ले आये, उनकी क्रिया-शक्ति को जीवन में संचरित कर दे; जो जीवन
और जगत् का एक ऊर्ध्वमुखी, प्रगतिमान निर्माण करे; जो मनुष्य को उसकी अवचेतना के जन्मान्तरव्यापी अन्धकारों, अराजकताओं और उलझनों से बाहर लाये; हर प्रतिकूलता के विरुद्ध अपराजेय आत्म-शक्ति के साथ जूझकर, अपने विकास के लिए अनुकूलः सुखद-सुन्दर, आनन्दमय-संवादी विश्न-रचना करने की सामर्थ्य उसे प्रदान करे।
बेशक, आज मनुष्य सर्वथा दिशाहारा हो गया है। वह सत्यानाश की कगार पर खड़ा हैं। अन्तहीन अन्धकार में भटकने को वह लाचार छूट गया है। लेकिन यही मनुष्य को अन्तिम नियति नहीं। पीड़न-शोषण, पतन-पराजय, कुण्ठा और अन्धकार से यदि आज का नौजवान नाराज है, तो क्या इसीलिए नहीं कि यह इन्हें अभीष्ट नहीं मानता। इन नकारात्मक परिबलों (फोर्सेज) को पराजित कर, पछाड़कर वह प्रकाश, सौन्दर्य, आनन्द, संवादिता के सुखी विश्व में जीने को बेताब है। अन्धकार कितना ही दुर्दान्त
और सर्वग्रासी क्यों न हो, आखिर उसकी सीमा है। प्रकाश की कोई सीमा नहीं। वह सृष्टि की मौलिक और शाश्वती सत्ता है। अन्धकार एक सापेक्ष, नकारात्मक, अभावात्मक अवरोध मात्र है। हम उसे नहीं चाहते, यही प्रमाणित करता है कि यह अनिवार्य नहीं। उसे हट जाना होगा, उसे फट
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