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पद-नल पर सिर ढाल देता होगा। कोई विषधर भुजंगन, जो मन्त्र-मोहित-सा होकर तुम्हारी नग्न जाँघों और बाहुओं के सौन्दयं से लिपट जाता होगा। ..काश, इनमें से कोई हो सकती राजुल...! ___ ...कायोत्सर्ग ? हर दिन वह करने की चेष्टा करती हूं। पर मैं तो एकदम ही खालो हूँ। क्या उत्सर्ग करूँ ? यह कामा तुम्हारे लिए ही जनमी थी, और तुम्हारे प्रति समूचो उत्सगं हो गयी उस दिन, उसी क्षण, जब गन्धमादन हस्तो पर आरूढ़ तुम्हार अनन्त कोटि सूक्जयों श्रीमुख की पहली बार अपने गवाक्ष पर से देखा था। आपा असह्य हो गया था उस निमिष में। अपने कौमार्च के हीरक पर्यक पर नितान्त रिक्त, निष्प्राण होकर जा पड़ी धी। एक ही चितवन से तुमने मेरा समस्त प्राण खींच लिया था : मेरी बहत्तर हजार नाड़ियाँ तुम्हारे भीतर कीलित हो गयी थीं।
अब किसके प्रति, क्या उत्सर्ग करूँ ! मेरी जीवित काया तो तुम्हारे चरणों की धूलि हो गयी। अब कायोत्सर्ग का यह निर्जीव अभिनय कब तक करती चली जाऊँ ? अपनी उत्सगित काचा से भिन्न, कोई आत्मा हूँ या नहीं, मैं नहीं जानती। तुमसे भिन्न कोई आत्मा हूँ, यह सोच पाना मेरे लिए सम्भव रहीं।... ___ ...घटाटोप घिरे आ रहे इन बादलों में, गिरनार की तमाम शिखर-मालाएँ डूब गयी हैं। जाने किस अगम्य के अज्ञात कूट पर तुम समाधिस्थ होगे इस क्षण ? जाने किसकी खोज में...? इस असीम विराट् प्रकृति के प्रति
आँखें मूंदकर, तुम अपने भीतर क्या पाना चाहते हो ? ओ परम पुरुष, पूछती हूँ, यह प्रकृति, यह लोक, जिसमें राजुल भी है, यदि तुम्हारे लिए सर्वथा त्याज्य है, छपेक्षणीय है, तो इसके होने का क्या प्रयोजन है : ...इस अथाह धुन्ध में खोची एक अनाधिनी बालिका तुम्हें पुकार रही है, पूछ रही है ! उत्तर दोगे...?
सुनती हूँ लोक के शीर्ष पर कोई अर्द्धचन्द्राकार सिद्ध-शिला है। तुम प्रकृति के सारे बन्धनों से मुक्त होकर, निर्वाण पाकर, उस सिद्ध-भूमि पर आसीन हुआ चाहते हो। तुम शुद्ध ज्ञान-स्वरूप, आप्तकाप हो जाना चाहते
74 : एक और मौलानना