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"अथाहों को थाहोगो, तो मिलेगी।" "तुम्हारी आँखों की इस गहन कजरारी रात में आज कहीं रहना होगा,
प्राण "
चेलनी के कपल-कक्ष का द्वार, आज रात देवता के पग-धारण की प्रतीक्षा करेगा।" ___अपने हीरक-नूपुरों की झलमलाती झंकार से पूनम की चाँदनी में लहरे उठाती हुई महारानी चेलनी धीरे-धीरे चली गयीं।
महाराज ने उमंगकर, चाँद को आरसी की तरह आसमान के आलय पर से उतार लिया, और उसमें अपना चेहरा निहारने लगे। देखकर उन्हें अपने आप पर ही प्यार आ गया।
अस्ताचल पर विशाल भामण्डल-सा चन्द्रमा निर्माण की तट गेला की और तेजी से बढ़ रहा था। जाभा में छिटकी बहुत ही सूक्ष्म आँचल-सी चाँदनी में, मगध की महारानी चेलना अपने "सहसार रथ का स्वयं सारथ्य करती हुई, महाराज चिम्बिसार को 'सम्यक् उपवन' में विहार कराने ले जा रही हैं। पारिजात फूलों का भीना-भीना परिमल, ब्राह्मी-वेला की संजीवनी हवा में अनजान गइराइयाँ खोल रहा है।...
....'सम्यक् उपवन' के तमाल-कुंज की घनी छाँव में केवल एक नीली तारिका को अकेली किरन खेल रही है । वैशाली की बैदेही के घने कुन्तलपाश में वह भी अचानक खो गयी। उस सुरभित अन्धकार की नीली आभा में डूबकर श्रेणिकराज ने चेलनी के वक्ष पर से सिर उठाया। पूजा प्रिया ने :
"कस्तूरी मिली...?"
"पिलकर भी वह तो फिर-फिर हिरन हो जाती हैं, चेला । तुम्हारी लीला अपरम्पार है। पाकर भी तुम्हें पा नहीं सका। तुम्हारे अणु-अणु में
एवनाध : सर्वनाथ : 5