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"तुम्हारी आँखों के मृग-वन में !''
'मृग-मीचकाओं में बिहार करके क्या पाएँगे ? क्या खोज रहे हैं वहाँ, स्वामिन "
"कस्तूरी...!" "मेरे देवता को वहाँ करसूरी मिली ?"
"रानी की कंचुकियों का अन्त नहीं, और नाभि-कमल की गहराइयाँ अथाह हैं। थाहते-थाहते थक गया हूँ।"
"फिर भी कस्तूरी नहीं मिली ?"
"महारानी अपने मनोदेश में से जाने कहाँ चली गयी हैं ? अभी तो उन्हीं की तलाश में हूँ !"
''मैं तो अपनी जगह पर हूँ... : लेकिन देवता के चरणों में भी हूँ ही। पर ये चरण ही वहां नहीं हैं।"
'कहाँ चले गये हैं, प्रेये ?" "मैं अपने ही बहुत भातर, जाने को विलीन हो गये हैं।"
"विपलाचल पर उदय होते उस चन्द्रमा में देखो, चेला । शायद वहाँ दिखाई पड़ जाएँ....''
"देख रही हूँ, वे कमल-चरण दूर-दूर चले जा रहे हैं, आँखों के पार :''
"चेलनी के बाहु-मृणाल, क्या उन्हें बाँधकर लौटा लाने में असमर्थ रहे ?"
"शायद....छोटे पड़ गये। मृणाल से छूटकर कपाल जाने कहाँ 'भाग निकने हैं ?"
"तो छोड़ो चेला, उन्हें अपनी राह जाने दो, क्यों परेशान होती हो?"
"परेशानी अपने लिए नहीं, उनके लिए है। वे मुझमें न सही, अपने में ही लौट आयें। फिर मैं तो वहाँ हूँ ही।"
"तुम तो अपनी जगह पर हो, तुम वहाँ कहाँ हो ?' "अपने में होकर भी, मैं सब कहीं हूँ, और कहीं नहीं हूँ !" "फिर तुम्हें कैसे पा सकता हूँ ?"
स्वयंनाथ : सर्वनाथ : 4:5