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सामने के स्फटिक-फर्श पर अंकित, शेष चरण-चिहनों पर माथा ढालकर, प्रभाक्ती प्रणिपात में नमित हो गयी। और फिर उठकर, वह धीर गति सं चलती हुई, चैत्य-उपवन को अभीथिनों तः . .. ..
उस सन्ध्या के बाद पार्श्वकुमार फिर वाराणसी के राजप्रासाद में कभी नहीं लौटे। और प्रभावती का रध खाती और उदास कशस्थल लौट आया।
...इस घटना को अब दो हजार साढ़े-सात सौ वर्ष बीत गये हैं। कहते है कि, पारसनाथ-हिल की सबसे ऊँची चोटी की चट्टान पर एक प्रकृत पादुका उत्कीर्ण है। जाने कहाँ से आकर उस पर पारेजात फूल झरते रहते हैं। इन सत्ताईस शताब्दियों के जारपार, जब-तब कई अन्तर्दी योगियों ने साक्षी दी है कि, उस चरण-पादुका के समीप कभी-कभी, उदय और अस्त की सन्ध्याओं में, एक ऐसी सुनीला सुन्दरी विचरती दिखाई पड़ती है, जिसके यौवन और सौन्दर्य की प्रभा आज तक वैसी ही अमन्द वनी
हुई है।
(29 मार्च, 1979)
चूड़ान्त को प्रभा : 11