________________
"...तब मैं कहाँ रह जाऊँगी, वहीं हो रहूँगी ।...और निर्णय के स्वामी तुम हो, मैं नहीं। रम्यक उपवन की गान-लहरी में जिस दिन पहली बार तुम्हें देखा, उस क्षण के वाद, प्रभा केवल तुम्हारे मन की एक तरंग होकर रह गयी। अब मुझसे क्या पूछते हो !...कुज्ञस्थल के दुर्ग-द्वार पर, मेरा परित्राण करने, क्या मुझसे पूछकर आये थे ? उस दिन तुम्हारे विशाल वक्ष देश में अब भन लारा, साग : जा, तो उसी मुहूर्त में हो गयी थी। वोध हुआ था, मृत्युंजय की चहेती पर नहीं सकती !...आगे तुम जानो " ___ "समझ रहा हूँ...देख रहा हूँ तुम्हें !...पर निर्णय सम्मेद-शिखर के चूड़ान्त पर ही होगा, प्रभावती। और निर्णय मैं नहीं, वह अमृता ही करेगी ! क्या कहती हो?"
''मुझे तो कुछ नहीं कहना। जो चाहो करो मेरे साथ, मेरे प्राणनाथ...!"
"प्रभा...5555...!'' "मेरे प्रभु...!" “पहचान रहा हूँ. .तुम्हें !" "अपनी प्रभा को...?" "हाँ, देख रहा हूँ तुम्हें...अपने आर-पार, तुम्हें...केवल तुम्हें !" "तो मेरा वरण-तिलक स्वीकारो...!"
"...वरण यहाँ नहीं, चूड़ान्त पर ही होगा, आत्मन् ! मर्त्य के राज्य में पिलन सम्भव नहीं, प्रभा !...जब पुकारूँ, तब आना ! हो सके तो उस दिन मेरा प्रमा-मण्डल बन जाना। सम्मेद-शिखर के अगम्यों को, तब एक ही छलाँग में लांघ जाऊँगा...!"
...और अगले ही क्षण पार्श्वकुमार वहाँ नहीं थे। गंगा की लहरों के अनन्तगामी पन्ध पर, एक विराट् आभा-पुरुष चला जा रहा था...दूर-दूरदूर...दूर-दूर-दूर...: और औचक ही दीखा, नीले जल-दिगन्त में डूबते विशाल सूर्य को कोर पर पैर धरकर, वह उस पार उतर गया !...
40 : एक और नीलांजना