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आप स्वयं ही सुभद्रा का अर्जुन द्वारा हरण करवाकर हजरत चुप्पे बैठे हैं, यादवों की क्षोभ से कोलाहल करतो राजसभा में इन्द्रप्रस्थ के राजसूय यज्ञ में शिशुपाल की बकवास को नजरन्दाज करके, नितान्त निर्विकल्प, निर्मम भाव से क्षणमात्र में उसके माथे को अपने चक्र के हवाले कर देते हैं। अभिमन्यु के बध, द्रौपदों के पाँच पुत्रों की अश्वत्थामा द्वारा नृशंस हत्या, और ऐसे ही अन्य भीषणतम अनर्थों के समाचार पाकर भी वे चुप रह जाते हैं। अविचल, तटस्थ, द्रष्टा मात्र और जहाँ अनिवार्य हो गया, चुपचाप सुखाव सुएिक ही कार से अवरोधक असुर को रसातल पहुँचा देते हैं। वह नितान्त सम्यक दृष्टि, अक्रोधी, अहिंसक, निर्ममत्व, सर्वत्राता पुरुषोत्तम का प्रहार और संहार है; जो जिसे मारता है उसे भी तार देता है; जो अपने स्वभाव से आत्मस्थ हैं, स्थितप्रज्ञ हैं, अपने विचार और व्यवहार में निर्विकल्प और बेहिचक है।
ऐसे ही 'युक्त' व्यक्तित्व के अभीप्सुक, या उसको उपलब्ध स्त्री-पुरुषों की चेतना - प्रक्रिया और जीवन लीला को मैंने प्रस्तुत कहानियों में रचने का एक प्रयास भर किया है। यही सच्चे अर्थों में आध्यात्मिकता है, आध्यात्मिक भाव से जीना और बरतना है। यही स्वभाव स्थिति है, यही स्वरूपाचरण है । मनुष्य की इस मूलगत आध्यात्मिक चेतना को मैंने इन कहानियों में मनोविज्ञान प्रदान किया है। अभी और यहाँ के सन्दर्भों में मैंने इन आत्मस्थ स्त्री-पुरुषों को घटित किया है। वे अपने जीवन के पल-पल के विचारों और वर्तनों में, जीवन को उसकी मौलिक सत्ता के परिप्रेक्ष्य में पढ़ते हैं, जाँचते हैं, खोलते हैं, जीते हैं। ये जीवन की गुत्थियों और समस्याओं को उसी सत्ता की रोशनी में विश्लेषित करते हैं, सुलझाते हैं और उसके सन्तुलन के काँटे पर फिर उसे संश्लेषित करते हैं। वे जीवन की तमाम कामना - कांक्षाओं को, परिस्थिति, संघर्ष, प्रेम-प्रणय, काम और हर सम्भव उपलब्धि को सत्ता की इसी स्वभावगत परिणति के सन्दर्भ में परिभाषित करते हैं। हर नयी स्थिति में उन पर नयी रोशनी डालते हैं। उन्हें नया. आयाम और समाधान देते हैं। इसी से ये घरित्र जीवन की हर स्थिति
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