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गहरे विषाद के भँवर में गोते खाने लगी। देखते-देखते अपनी इयत्ता हाथ से निकल गयी। आँखें धुंधलाने लगीं। सिराती दृष्टि में, बहुत दूर समुद्र में मिलकर निर्वाण पा रही कावेरी के छोर पर उसकी चेतना कुछ टोहने लगी ।
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.. पता नहीं कब वह राजमहल की ममेरी सीढ़ियाँ उतरकर संगम की ओर बढ़ता ही चला गया। कब नदी समुद्र हो गयी, भान न रहा। अन्तर की अराजक वेदना से आकान्त और बेचैन वह दूर-दूर भटकता चला गया।
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... एकाएक उसने अपने को एक निर्जन -निचाट समुद्र तट पर अकेले खड़ा पाया । बेला में लवंग और एला की लताएँ पुंगी वृक्षों से लिपटी हुई हवा में लहरा रही थीं और उनके अन्तराल में उसे दीखा कि एक उदग्न पहाड़ी की चट्टान पर कोई कृष्ण-नील दिगम्बर पुरुष, पद्मासन में ध्यानलीन विराजमान हैं। उनके तेजस्वी मुख मण्डल से अपूर्व शान्ति का आभावलय प्रसारित हो रहा है।
कोमल किशोर सुन्दर राजपुत्र को समक्ष पाकर, योगी बाहर की ओर उन्मुख हुए। कुमार के हृदय में जन्मान्तरों को सचित कोई अपूर्व प्रीति उमड़ आयी। उसकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी। उसकी चिर अनाथ भटकी चेतना को जैसे किनारा दिखाई पड़ गया। वह योगी के पाद- प्रान्त में लोटकर रुदन में फूट पड़ा। योगी की समाधि टूटी। वे वाकुमान हुए। कुमार उठकर जानुओं के बल बैठ उत्सुक नेत्रों से उनकी वाणी सुनने लगा :
“आयुष्मान् ! आ गये...? तुम प्रतीक्षित थे। पूछ रहे हो - मैं हूँ कि नहीं, विश्व है कि नहीं ? तो सुनो, कौन है यह जो देख रहा है, जान रहा है, पूछ रहा है ? यह समुद्र, यह नदी, ये वृक्ष, लताएँ, जीव-जन्तु, मनुष्य - सब परिवर्तन के चक्र में बार-बार उठ रहे हैं, मिट रहे हैं। फिर भी ये सदा थे, सदा हैं, सदा रहेंगे। जो बदल रहा है, वह केवल पर्याय हैं। जो इनमें अक्षुण्ण है, यह सत् तत्त्व है। केवल पर्याय का परिवर्तन देख व्याकुल हो गये ? पदार्थ को समग्र देखो, समग्र जानो। वह एकान्त नहीं,
1४४ : एक और नीलांजना