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करती। ब्राह्मी वेला में स्नान-ध्यान से निवृत्त हो, बड़ी भोर पूजा-अर्चा से लगाकर रात सोने तक वह अविश्रान्त और अक्लान्त भाव से उन पीड़ित जनों की परिचर्चा में संलग्न रहती। ___ ...एक सप्ताह बीतते न बीतत; महाराज श्रीपाल और उनके बन्धुचान्धवों के प्रण सूख चले। वे उस अरण्य के नव पल्लवों से प्रफुल्लित हो उठे। और कुछ ही महीनों में वे सब नीरोग, स्वस्थ हो एक नयी देहाभा से दमक उठे। उनकी सपूची त्वचा मानो किसी मानुषोत्तर धातु-रस से आप्लावित हो उठी।
"मेरे कामकुमार, अपने रूप को एक बार अपनी आँखों देखी 1... पहचानो कि तुम कौन हो ?"
"पहचान रहा हूँ मैना ! तुम प्रत्यक्ष चिदग्नि हो। तुम्हारे सौन्दर्य और प्रीति के परम रसायन का पार नहीं।"
"मेरा वह कहाँ रहन, देवता ! वह तो तुम्हारा ही अपना सौन्दर्य है। मुझे यो कब तक अलगाते रहोगे...?" ___“अलगा नहीं रहा, मैना । अपने को मिटा जो नहीं पा रहा हूँ, उसी की वेदना सबसे बड़ी है। तुम्हारा अमृत-कुम्भ पीकर भी, मेरे पुरुष की चरम अहवासना अभी शान्त नहीं हुई।
"वह तुम्हारा पौरुष है, मेरे पुरुषोत्तम। जाओ, दिग्विजय करो ... चम्पा के नदीघाट पर मैं तुम्हारे विजय-पोत की प्रतीक्षा करूँगी...।"
अपने काका वीरदमन से राज्य लौटाने की याचना, श्रीपाल के स्वाधीन पौरुष को नहीं सची। वे अपने कोटिभट बाहुबल से वसुन्धरा को जीतकर अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित करना चाहते थे।
नियोजित शुभ-मुहूर्त में वे मैनासुन्दरी सहित, अपने सात सौ सुभटों के साथ, चम्पा लौट आये। और अगले ही दिन राजमाता की सेवा में मैना
114 : एक और नीतांजना