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"दासी नहीं राजन्, स्वामिनो ! वह अपनी स्वामिनी है, इसी से मेरी स्वामिनी है, और आपकी भी...!"
राजा आश्चर्य से विश्रब्ध हो रहे । आनन्द और आक्रोश दोनों से वे यकसाँ विक्षुब्ध थे।
“मैनासुन्दरी का पाणिग्रहण स्वीकारें, आर्य । में आप ही की खांज में निकला था ।"
"मेरी तो उँगलियाँ ही खिर गयीं। पाणिग्रहण मैं क्या जानूँ !... पर उस परम सुन्दरी सती के गणों की है."
"तो आर्य, आज्ञा दें। उज्जयिनी की राजबाला मैनासुन्दरी, अवन्ती का सारा वैभव लेकर आपके चरणों में शीघ्र उपस्थित होगी ।"
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मन्त्रीगण राजा के इस भयंकर निश्चय से थर्रा उठे थे। रास्ते में उन्होंने रो-रोकर अपने स्वामी से अनुनय-विनय की, अनेक तरह से तर्क-वितर्क और विरोध करके उनके इस संकल्प को बदलना चाहा, पर वे सफल न हो सके । राजा के भीतर रोष और घायल अपमान का ज्वालागिरि उबल रहा था। पर मैना के कथन का सचोट प्रमाण पाकर वे मन्त्रमोहित से भी थे। उनकी उत्सुकता और जिज्ञासा की धार तीव्रतर होती जा रही थी । प्रखर सत्य की रोशनी उन्हें आर-पार बींध रही थी।... स्पष्ट ही, क्या यही वह उनकी पुत्री का नियुक्त पति नहीं है ?... राजा और मन्त्रियों के रथ, घूर्णिचक्र के वेग से उज्जयिनी की ओर धावमान थे ।
“जाओ मैना, चिरंजीवो। तुम्हारा नियोगी पुरुष तुम्हारी प्रतीक्षा में हैं, निरंजना के महारण्य में । चम्पा का कोढ़ी राजा तुम्हारे पाणि-पल्लव का प्राथीं है।... मैं वाग्दान कर आया !"
"मैं कृतज्ञ हुई, तात ! आपने अपनी बेटी के योग्य किया। ऐसे पिता की पुत्री होने पर मुझे गर्व है।"
"कोढ़ी से कम कोई तुम्हारा प्रियतम नहीं हो सकता था ! तुम्हारी हठ पूरी हुई। मैं हार गया ।"
रूपान्तर की द्वाभा 109