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सम्बोधन किया :
"स्वागत देयानुप्रियो, दर्शन-लाभ से कृतकृत्य हुआ। आपके शुभ परिचय का प्रत्याशी हूँ।"
"उञ्जयिनी के राजा पहुपाल का अभिवादन स्वीकारें । ये मेरे मन्त्रीगण हैं।...आप कौन महर्धिक महापुरुष हैं ? यहाँ कैसे : ये सब कौन हैं ?"
महाराज श्रीपाल ने संक्षेप में अपनी आपबीती निवेदन कर दी। सुनकर पहुपाल और उनके मन्त्री नर का न मा नन ही- सावधान हुए और समाधीत भी। प्रतिशोध का कटु सन्तोष और प्राप्ति का आनन्द वे एक साध अनुभव करने लगे। बोले :
"आप तो पहातपस्वी हैं, आर्य श्रीपाल, और आपके ये संगी भी धन्य हैं। अहोभाग्य, आपके दर्शन हुए।"
'अवन्तिनाथ पहुपाल का वात्सल्य लोक में अतुल्य है। जहाँ मनुष्य झाँकना न बाहेगा वहाँ आप चले आये, हमारी वेदना से विवश आकृष्ट होकर, करुण-कातर होकर । आप धन्य हैं देवानुप्रिय, आप विशिष्ट हैं।"
"आर्य श्रीपाल, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ ?" "आप आये, तो प्रभु आये महाराज। और क्या चाहिए।"
''मैं आपसे मिलकर कृतकाम हुआ, कोटिभट । जो चाहें, आज्ञा करें, मेरा सिंहासन आपकी सेवा में प्रस्तुत है।"
"अकेले ही आये हो राजन्... केवल मन्त्रियों के साथ ?...और कोई नहीं आया ?"
"मैं समझा नहीं, आर्य !" "मेरी नियोगिनी कहाँ है ?" “साधु...साधु...आर्य ! वह चिरकाल से आपको प्रतीक्षा में हैं।"
"उज्जयिनी की राजबाला से कहना, हम उन्हें याद करते हैं। उन्हें हमारा प्रणाम निवेदन करें।"
वह तो आपकी अर्पिता है, आर्य श्रीपाल । जनम-जनम की दासी को प्रणाम कैसा ?''
108 : एक और नीलांजना