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(४०) पिय वैराग्य लियो है, किस मिस देखन जाऊं।। टेक॥ व्याहन आओ अशु छुटकाये, अमिय या पुराव्य॥१॥ मैं सिंगारी वे अविकारी, क्यों नभ मुठिय समाऊं। पिय. ॥ २॥ 'द्यानत' जोगनि है विरमाऊं, कृपा करें निज ठाऊं। पिय. ।। ३ ।।
राजुल अपनी सखी से कह रही है कि हे सखी ! मेरे प्रियतम को वैराग्य हुआ हैं । मैं उन्हें देखने अब किस बहाने से जाऊँ?
वे ब्याह करने आए तो पशुओं को उन्होंने छुड़ाया, बंधनमुक्त करवाया। फिर स्वयं ने रथ, शहर व गाँव को छोड़ दिया।
मैं शृंगार में रत और वे इन सब विकारों से मुक्त हैं । उन्हें अपनी ओर मोड़ना आकाश को मुट्ठी में समेटने जैसा असंभव कार्य हैं। बताओ मैं किस प्रकार आकाश को मुट्ठी में बंद करूँ? अर्थात् कैसे उन्हें मनाऊँ?
द्यानतराय कहते हैं कि राजुल प्रार्थना करती है कि हे प्रभु! मैं भी योगिनी होकर, साध्वी होकर रम जाऊँ। ऐसी कृपा कीजिए कि मैं भी स्व-स्थान में (निज में) ठहर जाऊँ, स्थित हो जाऊँ !
गांऊ - गाँव 1
झानत भजन सौरभ