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________________ (३४) चल देखें प्यारी, नेमि नवल व्रतधारी ॥ टेक ॥ रोग दोष विन शोभन मूरति मुकतिनाथ अविकारी ॥ चल. ॥ १ ॥ क्रोध बिना किमि करम विनाश, यह अचरज मन भारी ॥ चल. ॥ २ ॥ वचन अनक्षर सब जिय समझैं, भाषा न्यारी न्यारी ॥ चल. ॥ ३ ॥ ********ang de चतुरानन सब खलक विलोकें, पूरब मुख प्रभुका री ॥ चल. ॥ ४॥ केवलज्ञान आदि गुण प्रगटे, नेकु न मान किया री ॥ चल. ॥ ५ ॥ प्रभुकी महिमा प्रभु न कहि सकें, हम तुम कौन विचारी ॥ चल. ॥ ६ ॥ 'द्यानत' नेमिनाथ बिन आली, कह मोकौं को तारी ॥ चल. ॥ ७ ॥ हे प्रिय ! चलो नवदीक्षित, व्रतों के भारी, संयमी नेमिनाथ के दर्शन करें। रोगदोषरहित, मुक्ति के स्वामी की निर्विकार मुद्रा शोभित हैं। यह अत्यन्त आश्चर्य की बात है कि कर्मों पर क्रोध किए बिना उन्होंने किस प्रकार उनको समूल नष्ट कर दिया है ! केवलज्ञान होने पर उनकी निरक्षरी दिव्यध्वनि को सभी जीव-जन्तु अपनीअपनी भाषा व मन्तव्य में समझ रहे हैं । चारों दिशाओं में उनके श्रीमुख के दर्शन होते हुए भी वे पूर्व दिशा की ओर मुख करके आसीन हैं। उनके केवलज्ञान सहित अनेक गुण प्रकट हो गए हैं, फिर भी उन्हें किसी प्रकार का कोई मान नहीं है । उन प्रभु की महिमा का वर्णन समर्थ लोगों द्वारा भी नहीं किया जा सकता। तब तुम्हारी व हमारी क्या बिसात है ? द्यानतराय कहते हैं कि हे सखी! तू ही बता नेमिनाथ के अलावा हमें कौन भवसागर के पार उतार सकता है ? ३६ द्यानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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