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कहा री! करौं कित जाऊं सखी मैं, नेमि गये वन औरै री।। टेक॥ कहा चूक प्रभुसों मैं कीनी, जो पोउ मोह न लोरै री॥ कहा री.॥ १॥ अब वहां जैहौं विनती करिहौं, सनमुख है कर जोरै री। कहा री.॥२॥ 'खानत' हमैं तारल्यो स्वामी, लैहुँ वलाइ किरौर री ॥ कहा री.॥ ३ ॥
हे सखी ! नेमिनाथ वन की ओर चले गये। अब मैं क्या करूँ, किधर जाऊँ? मैंने उनके प्रति क्या चूक कर दी जो मेरे प्रियतम मुझको साथ लेकर नहीं
अब मैं वहाँ जाऊँगी, उनके सम्मुख जाकर हाथ जोड़कर उनसे विनती करूँगी, अनुनय करूँगी, विनय करूँगी।
द्यानत कहते हैं कि हम आपकी करोड़ों बलैया लेते हैं। हे स्वामी! अब हमको भी तारो, भवसागर से पार उतारो।
द्यानत भजन सौरभ