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( १६ ) राग सोठ कड़खा
रुल्यो चिरकाल, जगजाल चहुँगति विषै आज जिनराज तुम - शरन आयो ॥ टेक ॥
सह्यो दुख घोर, नहिं छोर आवै कहत,
तुमसौं कछु छिप्यो नहिं तुम बतायो । रुल्यो. ॥ १ ॥
तु ही संसारतारक नहीं दूसरो, ऐसो मुह भेद न किन्ही सुनायो । रुल्यो. ॥ २ ॥
सकल सुर असुर नरनाथ बंदत चरन, नाभिनन्दन निपुन मुनिन ध्यायो ॥ रुल्यो. ॥ ३ ॥
तु ही अरहन्त भगवन्त गुणवन्त प्रभु, खुले मुझ भाग अब दरश पायो । रुल्यो. ॥ ४ ॥
सिद्ध ह्रौं शुद्ध ह्रौं बुद्ध अविरुद्ध हौं, ईश जगदीश बहु गुणनि गायो । रुल्यो . ॥ ५ ॥
सर्व चिन्ता गई बुद्धि निर्मल भई, जब हि चित जुगलचरननि लगायो ॥ रुल्यो. ।। ६ ।।
भयो निहचिन्त 'द्यानत' चरन शर्न गहि,
तार
अब नाथ तेरो कहायो ॥ रुल्यो ॥ ७ ॥
हे जिनेश्वर ! अनन्त काल से इस संसार में चारों गतियों में रुलता ( भटकता ) चला आ रहा मैं, अब आज आपकी शरण आया हूँ ।
मैंने घोर दुःख सहे हैं वे भी इतने कि जिनको कहा जावे तो भी उसका अन्त नहीं आवे। वह सब आपसे कुछ छुपा हुआ नहीं हैं, आप सब जानते हैं । अर्थात् आपके ज्ञान में वह सब दीख रहा है ।
द्यानत भजन सौरभ
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