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________________ (३२६) आरती वर्द्धमानजी की करौं आरती वर्द्धमानकी। पावापुर निरवान थानकी॥ टेक ॥ राग-बिना सब जग जन तारे। द्वेष बिना सब करम विदारे॥१॥ शील-धुरंधर शिव-तियभोगी। मनवचकायन कहिये योगी ॥२॥ रतनत्रय निधि परिगह-हारी। ज्ञानसुधाभोजनव्रतधारी॥३॥ गोक-आलोक पाय निजमाही : सुखाय कि सुखदुख नाहीं॥४॥ पंचकल्याणकपूज्य विरागी। विमलदिगंबर अंबर-त्यागी॥५॥ गुनमनि-भूषन भूषित स्वामी। जगतउदास जगतरस्वामी ॥ ६ ॥ कहै कहां लौँ तुम सब जानौ। 'द्यानत' की अभिलाष प्रमानौं।। ७ ।। मैं भगवान बर्द्धमान को/तीर्थकर महावीर की आरती करता हूँ जिनका निर्वाणस्थान पावांपुर है। मैं उन भगवान बर्द्धमान की आरती करता हूँ जिन्होंने रागरहित/राम-शून्य होकर मैत्रो भावना और करुणा से जगत के प्राणियों को संसार से भव-भ्रमण से छूटने का उपाय बताया जिन्होंने द्वेषरहित होकर सब कर्मों का नाश किया। ____ मैं उन भगवान वर्द्धमान की आरती करता हूँ जिन्होंने ब्रह्मचर्या में रत होकर शील का दृढ़ता से पालन किया, जिन्होंने मन-वचन और काय की एकाग्रता कर योग धारण किया, गुप्ति का पालन किया और मोक्षरूपी लक्ष्मी का वरण किया। जिन्होंने सब परिग्रह को छोड़कर रत्नत्रय निधि (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित) को धारण किया, जिन्होंने ज्ञानरूपी अमृत का भोजन किया अर्थात् सर्वोच्च ज्ञान प्राप्त किया। जिन्होंने सर्वज्ञ होकर लोक और अलोक को अपने में ही दर्पणवत् धारण ३८० द्यानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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