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________________ (२९७) जियको दो महा सुखावई शामिनी न जाई। टेक॥ लोभ करै मूरख संसारी, छांडै पण्डित शिव अधिकारी॥जियको.।। तजि घरवास फिरै धनमाहीं, कनक कामिनी छाडै नाहीं। लोक रिझावनको व्रत लीना, व्रत न होय ठगई सा कीना॥१॥ लोभवशात जीव हत डारै, झूठ बोल चोरी चित धारै । नारि गहै परिगृह विसतारै, पांच पाप कर नरक सिधारै ॥२॥ जोगी जती गृही वनवासी, बैरागी दरवेश सन्यासी। अजस खान जसकी नहिं रेखा, 'द्यानत' जिनकै लोभ विशेखा ॥३॥ अरे यह लोभ इस जीव को बहुत दु:ख का दाता है, बहुत दुःखदायी है। इसके कारण उत्पन्ना दु:ख-स्थिति का कथन नहीं किया जा सकता। इस जगत में जो लोभ करते हैं वे सभी अज्ञानी हैं। जो लोभ को छोड़ देते हैं वे ही पण्डित व ज्ञानी हैं। वे ही मोक्ष पाने के अधिकारी होते हैं। जो घरबार छोड़कर वन में जाकर तो रहते हैं पर स्त्री व धन को नहीं छोड़ते अर्थात् स्त्री व धन साथ रखते हैं, तो उनके द्वारा ग्रहण किए गए व्रत मात्र दिखावा हैं । वे व्रत नहीं हैं, परन्तु ठगने के लिए ठग के समान लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए की जा रही क्रियाएँ हैं। प्राणी लोभ के कारण जीवों का घात करता है, उन्हें कष्ट पहुँचाता है, झूठ बोलता है, पर-धन को हरने के लिए चोरी करता है, चोरी का विचार करता है, स्त्री को साथ लेकर परिग्रह जुटाता है और इन सबके कारण उसे नरक जाना पड़ता है। द्यानतराय कहते हैं कि चाहे कोई योगी हो, जती (यति) हो, घर में रहनेवाला हो या बन में रहनेवाला हो, वैरागी हो या दरवेश हो अथवा संन्यासी हो, जिनके विशेष लोभ होता है उनको सबको अयश की खान (बहुत मात्रा में अपयश) की ही प्राप्ति होती है अर्थात् उन्हें यश की रेखा (तनिक भी सुयश) की प्राप्ति नहीं होती। दरवेश - संन्यासी। ३४४ धानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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