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( २९६ )
राग गौरी
सबसों छिमा छिमा कर जीव ! ॥ टेक ॥
मन वच तनसों वैर भाव तज, भज समता जु सदीव | सबसों ॥
तपतरु उपशम जल चिर सींच्यो, तापस शिवफल हेत । क्रोध अगनि छनमाहिं, जरावै, पावै नरक-निकेत | सबसौं ।। १ ।।
सब गुनसहित गहत रिस मनमें, गुन आँगुन है जात जैसैं प्रानदान भोजन है, सविष भये तन घात ॥ सबसौं ॥ २ ॥
आप समान जान घट घटमें, धर्ममूल यह वीर । 'द्यानत' भवदुखदाह बुझावें, ज्ञानसरोवरनीर ।। सबसौं ।। ३॥
हे जीव ! तू सब प्राणियों के प्रति क्षमा भाव रख | सबके प्रति मन, वचन और काय से बैरभाव छोड़कर सदा संमताभाव में हीं लीन रह ।
वह तपस्वी जो तपरूपी वृक्ष को, उपशमरूपी जल से सदा सींचता है वह मोक्षरूपी फल पाता है और जो क्रोध करता है उसे क्रोध की अग्नि में एक क्षण में ही नष्ट कर देती है, जला देती है और वह नरक का निवास पाता है ।
सारे गुणों के होते हुए भी मन में केवल क्रोध के उत्पन्न होने पर सब गुण अवगुण हो जाते हैं । जैसे भोजन से प्राणदान मिलता है, परन्तु उसमें विषाणुओं के मिल जाने से वह ही प्राणलेवा बन जाता है।
सब जीवों को आप अपने समान जानो। अरे भाई! यही धर्म का मूल है. सार है। ह्यानतराय कहते हैं कि ऐसे ज्ञानरूपी सरोवर का जल भव- दुःखरूपी दाह को है, शमन करता है, नष्ट करता है ।
बुझाता
द्यानत भजन सौरभ
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