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________________ ( २९४ ) क्रोध कषाय न मैं करौं, इह परभव दुखदाय हो ॥ टेक ॥ गरमी व्यापै देहमें, गुनसमूह जलि जाय हो ॥ क्रोध. ॥ गारी दै मार्यो नहीं, मारि कियो नहिं दोय हो । दो करि समता ना हरी, या सम मीत न कोय हो । क्रोध ॥ १॥ पाप हो नासै अपने पुन्यको, काटै ता प्रीतमसों रूसिकै कौन सह्रै सन्ताप हो । क्रोध. ॥ २ ॥ हम खोटे खोटे कहैं, सांचेसों न बिगार हो । गुन लखि निन्दा जो करै, क्या लाबरसों रार हो । क्रोध. ॥ ३ ॥ जो दुरजन दुख दै नहीं, छिमा न हैं परकास हो । गुन परगट करि सुख करै, क्रोध न कीजे तास हो । क्रोध ॥ ४ ॥ क्रोध कियेसों कोपिये, हमें उसे क्या फेर हो । सज्जन दुरजन एकसे, मन थिर कीजे मेर हो । क्रोध. ॥ ५ ॥ बहुत कालसों साथिया, जप तप संजम ध्यान हो । तासु परीक्षा लैनको, आयो समझो ज्ञान हो । क्रोध ॥ ६ ॥ आप कमायो भोगिये, पर दुख दोनों झूठ हो । 'द्यानत' परमानन्द मय, तू जगसों क्यों रूठ हो । क्रोध ॥ ७ ॥ हे प्रभु! मैं क्रोध कषाय कभी न करूँ, क्योंकि यह इस भव में व परभव में दोनों में दुःख देनेवाली है। क्रोध कषाय से सारे शरीर में ( रक्तचाप बढ़ कर ) गरमी उष्णता बढ़ जाती है। आवेश के कारण सारे गुणों के समूह का नाश हो जाता है। - गाली देकर किसी को मारा नहीं क्योंकि गाली देने से कोई मरता नहीं । मारकर उसके दो टुकड़े भी नहीं किए। ये दोनों ही कार्य न करके समता भाव रखा तो इसके समान कोई प्रिय कार्य नहीं, मित्र नहीं । ३४० द्यानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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