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(२८६) जब बानी खिरी महावीरकी तब, आनंद भयो अपार ॥ टेक॥ सब प्रानी मन ऊपजी हो, धिक धिक यह संसार।। जब.॥ बहुतनि समकित आदी हो, श्रावक भरें अनेक। घर तजकैं बहु बन गये हो, हिरदै धर्यो विवेक।। जब.॥१॥ केई भाव भावना हो, केई गहँ तप घोर। केई जमैं प्रभु नामको ज्यों, भाजें कर्म कठोर ।। जब. ॥ २॥ बहुतक तप करि शिव गये हो, बहुत गये सुरलोक । 'द्यानत' सो वानी सदा ही, जयवन्ती जग होय॥ जब.॥३॥
जब समवसरण में भगवान महावीर की दिव्य ध्वनि खिरी (झरी) तब सर्वत्र अपार आनन्द की लहर दौड़ गई। उसे सुनकर सब के मन में यह बोध हुआ कि यह संसार धिक्कारने योग्य है।
उसे सुनकर बहुत से लोगों ने समता व सम्यक्त्व का आदर किया अर्थात् बोध को सम्यकप में अंगीकार किया, आदर किया और बहुत से लोग चारित्र से श्रावक हो गए। बहुत से घरबार छोड़कर वन में साधना हेतु चले गए और हृदय से विवेकपूर्ण व्यवहार करने लगे।
कई (बारह भावनाएँ, सोलहकारण भावनाएँ आदि) अनेक प्रकार की भावनाएँ भाते रहे । अनेक ने घोर तपश्चरण किया। अनेक जनों ने प्रभु नाम का स्मरण-जाप किया जिससे कर्म-बंधन की कठोरता मिटे और बंध ढीले हों, शिथिल हों।
बहुत से लोग तप करके मुक्त हुए, मोक्षगामी हुए। बहुत से स्वर्ग गए। द्यानतराय कहते हैं कि भगवान की दिव्यध्वनि लोक में सदा ही जयवन्त हो।
द्यानत भजन सौरभ