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________________ { २६२) राग सारंग मेरे मन कब है है बैराग ।। टेक॥ राज समाज अकाज विचारौं, छारौं विषय कारे नाग॥ मेरे. ॥ १॥ मन्दिर वास उदास होयकैं, जाय बसौं बन बाग। मेरे. ।। २ ।। कब यह आसा कांसा फूटै, लोभ भाव जाय भाग॥ मेरे. ॥ ३।। आप समान सबै जिय जानौं, राग दोषकों त्याग॥ मेरे. ॥ ४॥ 'द्यानत' यह विधि जब अनि आवै, सोई घड़ी बड़भाग। मेरे.॥५॥ मेरे मन में कब विरक्तता होकर वैराग्य की भावना होगी? राजकार्य, सामाजिक कार्य इन सबको निरर्थक जानकर इन्द्रिय-विषयरूप काले नागों से कब छुटकारा होगा अर्थात् विषयों का त्याग होगा! मन्दिर व घर से उदासीन होकर बन में, बगीचे में जाकर प्रकृति की गोद में कब निवास करूँगा? कब आशा का पात्र नष्ट हो और हृदय से लोभ भी निकल जाए अर्थात् कामनाएँ - तृष्णा समाप्त हो! कब ऐसा होगा कि सभी जीवों को अपने समान जानूँ ! उनसे सभी प्रकार का राग-द्वेष का भाव त्या ! द्यानतराय कहते हैं कि जब इस प्रकार सब घटनाएँ घटित हों वह घड़ी ही अत्यन्त भाग्यशाली होगी। धानत भजन सौरभ ३०
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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