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(२६१) मेरी मेरी करत जनम सब बीता ॥ टेक॥ परजय-रत स्वस्वरूप न जान्यो, ममता ठगनीने ठग लीता। मेरी.॥१॥ इंद्री-सुख लखि सुख विसरानौ, पांचों नायक वश नहिं कीता ॥ मेरी.॥२॥ 'द्यानत' समता-रसके रागी, विषयनि त्यागी है जग जीता ॥ मेरी.॥३॥
हे प्राणी ! इस संसार में यह मेरा है, यह मेरा है, ऐसा करते करते सारा जनम बीता जाता है।
अपने से भिन्न परवस्तु को अपना मानकर उसमें ही रत रहा। अपने स्वरूप को नहीं पहचाना और मोह-ममतारूपी ठगनी के द्वारा ठगा जाता रहा है ।
इन्द्रिय सुख को पाकर अपने आत्मिक सुख को भूल गया और इन पाँचों इन्द्रियों को अपने वशीभूत नहीं कर सका।
धानतराय कहते हैं कि जो इन्द्रिय-विषयों के त्यागी हैं और समता रस में डूबे हुए हैं उन्होंने ही इस जगत को जीता है।
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द्यानत भजन सौरभ