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प्राणी लाल! छांडो मन चपलाई॥टेक ।। देखो तन्दुलमच्छ जु भनौं, लहै नरक दुखदाई ॥ प्राणी.॥ धारै मौन दया जिनपूजा, काया बहुत तपाई। मनको शल्य गयो नहिं जब लों, करनी सकल गंवाई। प्राणी.॥१॥ बाहूबल मुनि ज्ञान न उपज्यो, मनकी खुटक न जाई। सुनतें मान तज्यो मनको तब, केवलजोति जगाई ॥ प्राणी. ॥ २ ॥ प्रसनचंद रिषि नरक जु जाते, मन फेरत शिव पाई। तन" वचन वचन" मनको, पाप कह्यो अधिकाई। प्राणी.॥३॥ देंहिं दान गहि शील फिरै बन, परनिन्दा न सुहाई। वेद पढ़ें निरग्रंथ रहैं जिय, ध्यान बिना न बड़ाई॥प्राणी. ॥ ४॥ त्याग फरस रस गंध वरण सुर, मन इनसों लौ लाई। घर ही कोस पचास भ्रमत ज्यों, तेलीको वृष भाई॥ प्राणी. ॥५॥ मन कारण है सब कारजको, विकलप बंध बढ़ाई। निरविकलप मन मोक्ष करत है, सूधी बात बताई ॥ प्राणी.॥६॥ 'धानत' जे निज मन वश करि हैं, तिनको शिवसुख थाई। बार बार कहुं चेत सवेरो, फिर पाईं पछताई। प्राणी. ॥७॥
हे प्राणी! हे प्रिय ! तुम मन की चंचलता को छोड़ो। देखो, तंदुलमच्छ ने मन की चपलता के कारण नरक के दुखदायी कष्ट पाए।
अरे, मौन धारण किया, दया भी की, जिनपूजा भी को और काया को बहुत साधा भी, पर जब तक मन का शल्य न निकला, तब तक सब क्रियाएँ व्यर्थ ही गई।
घानत भजन सौरभ