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________________ (२४२) तू तो समझ समझ रे! भाई ॥टेक॥ निशिदिन विषय भोग लपटाना, धरम वचन न सुहाई॥तू तो.॥ कर मनका लै आसन मार्यो, वाहिज लोक रिझाई। कहा भयो बक-ध्यान धरेतें, जो मन थिर न रहाई।। तू तो. ॥१॥ मास मास उपवास किये तैं, काया बहुत सुखाई। क्रोध मान छल लोभ न जीत्या, कारज कौन सराई॥तू तो. ॥ २॥ मन वच काय जोग थिर कारकी, त्या विषयकलाई : . 'द्यानत' सुरग मोख सुखदाई, सदगुरु सीख बताई।। तू तो. ॥ ३॥ अरे भाई ! तू अब तो समझ, विवेकपूर्वक विचार कर । दिन-रात तू विषयभोग में उलझ रहा है, लिपट रहा है । तुझे धर्म का उपदेश, धर्म के वचन तनिक भी नहीं सुहाते - अच्छे नहीं लगते। तू लोक-दिखाने के लिए, माला की मणि को हाथ में थामकर आसन लगाकर बैठता है और लोगों को रिझाता है, तू अपने आपको धर्मात्मा के रूप में दिखाता है। अरे जब तेरा मन चंचल होकर भटक रहा है तो बगुले की भांति ध्यान लगाने से क्या लाभ है? तूने एक-एक मास के उपवास/लंघन करके काया को अत्यन्त कमजोर/ शिथिल कर लिया, सुखा लिया। इस काया को कृश कर दिया लेकिन क्रोधमान-माया और लोभ, इन कषायों को नहीं जीता, वश में नहीं किया, तो तेरा कौनसा कार्य सिद्ध होगा? ___ मन, वचन, काय इन तीनों योगों को थिर करके, विषय वासना, कषायों को छोड़। द्यानतराय कहते हैं कि यह ही सद्गुरु का उपदेश है। इससे ही स्वर्ग व मोक्ष की, लौकिक व पारलौकिक सुख की प्राप्ति होती है। मनका = माला का मणिया/दाना। द्यानत भजन सौरभ २७९
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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