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________________ ( २४१ ) त्यागो त्यागो मिथ्यातम, दूजो नहीं जाकी सम, तोह दुख दाता तिहूँ, लोक तिहूँ काल ॥ त्यागो. ॥ चेतन अमलरूप, तीन लोक ताको भूप, सो तो डायो भवकूप दे नहिं निकाल ॥ त्यागो ॥ १ ॥ र S एक सौ चालीस आठ प्रकृतिमें यह गाँठ, जाके त्यागें पावै शिव, गहैं भव जाल ॥ त्यागो ॥ २ ॥ 'द्यानत' यही जतन, सुनो तुम भविजन, भजो जिनराज तातैं, भाज जै है हाल । त्यागो ॥ ३ ॥ , अरे भाई ! मिथ्यात्व के अंधकार को अज्ञान को छोड़ो। तीनों लोक व तीनों काल में इसके समान दुःख देनेवाला कोई नहीं है । यह चेतन मलरहित हैं, तीन लोक का स्वामी है, ज्ञाता है । उसको यह मिथ्यात्व भवरूपी कुएँ में डाल देता है और निकलने नहीं देता । यह मिथ्यात्व जीव को एक सौ अड़तालीस कर्म - प्रकृतियों की जकड़न में जकड़े रखता है, बाँधे रखता है, जिनको छोड़ने पर ही मोक्ष की प्राप्ति होती है और यह भत्र - जाल समाप्त हो जाता है करने का द्यानतराय कहते हैं कि ओ भव्य पुरुष ! सुनो! मिध्यात्व को दूर एक यही उपाय है, यही एक यत्न है कि तुम श्री जिनराज का भजन करो जिससे यह मिथ्यात्व की दशा ( स्थिति / हाल ) दूर हो जावे । २७८ द्यानत भजन सौरभ
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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