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त्यागो त्यागो मिथ्यातम, दूजो नहीं जाकी सम, तोह दुख दाता तिहूँ, लोक तिहूँ काल ॥ त्यागो. ॥
चेतन अमलरूप, तीन लोक ताको भूप,
सो तो डायो भवकूप दे नहिं निकाल ॥ त्यागो ॥ १ ॥
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एक सौ चालीस आठ प्रकृतिमें यह गाँठ,
जाके त्यागें पावै शिव, गहैं भव जाल ॥ त्यागो ॥ २ ॥
'द्यानत' यही जतन, सुनो तुम भविजन, भजो जिनराज तातैं, भाज जै है हाल । त्यागो ॥ ३ ॥
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अरे भाई ! मिथ्यात्व के अंधकार को अज्ञान को छोड़ो। तीनों लोक व तीनों काल में इसके समान दुःख देनेवाला कोई नहीं है ।
यह चेतन मलरहित हैं, तीन लोक का स्वामी है, ज्ञाता है । उसको यह मिथ्यात्व भवरूपी कुएँ में डाल देता है और निकलने नहीं देता ।
यह मिथ्यात्व जीव को एक सौ अड़तालीस कर्म - प्रकृतियों की जकड़न में जकड़े रखता है, बाँधे रखता है, जिनको छोड़ने पर ही मोक्ष की प्राप्ति होती है और यह भत्र - जाल समाप्त हो जाता है
करने का
द्यानतराय कहते हैं कि ओ भव्य पुरुष ! सुनो! मिध्यात्व को दूर एक यही उपाय है, यही एक यत्न है कि तुम श्री जिनराज का भजन करो जिससे यह मिथ्यात्व की दशा ( स्थिति / हाल ) दूर हो जावे ।
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द्यानत भजन सौरभ