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________________ (२३८) जीवा! शृं कहिये तनैं भाई ॥ टेक ।। पोतानूं रूप अनूप तजीनैं, शामाटै विषयी थाई। जीवा.॥ इन्द्रीना विषय विषथकी मौटा, ज्ञाननू अम्रत गाई। अमृत छोड़ीनै विषय विष पीधा, साता तो नथी पाई॥ जीवा. ।। १।। नरक निगोदना दुख सह आव्यो, बळी तिह. मग धाई। एहवी बात रूड़ी न छै तमनैं, तीन भवनना राई॥ जीवा.॥२॥ लाख बातनी बात एम छै, मूकीनै विषयकषाई। 'यानत' ते बारै सुख लाधौ, एम गुरू समझाई। जीवा. ॥ ३॥ ओ जीवात्मा, तुझे क्या कहें भाई! अपने पूर्व कर्म के संयोग से सुन्दर रूप प्राप्त करके तूने उसे विषयों से आच्छादित कर दिया है, उनमें उलझा रखा है। ___ इन्द्रिय-विषयों में उलझकर तू उनको ही अमृत के समान मानता रहा, उनके गीत गाता रहा और इस प्रकार तूने अमृत को छोड़कर विषयों के रस को पीया, तो उससे तुझे साता की प्राप्ति नहीं हुई। तूने नरक-निगोद के दुःखों को सहा। अब मनुष्य जन्म पाकर भी तू पुनः उसी मार्ग पर चल रहा है, भाग रहा हैं ! यह बात तुझे अच्छी न लगी ! तू तीन भुवन का राजा होकर भी एक इतनी--सी बात नहीं समझ सका ! लाख बात की एक बात यह है कि तू विषयः कषायों को छोड़-तज । द्यानतराय कहते हैं कि तभी तुझे सुख की प्राप्ति हो सकेगी, सत्गुरु ने इस प्रकार समझाया है। इस भजन में गुजराती भाषा के शब्दों का प्रयोग किया गया है - शू = क्या; तनै = तुझे; पोतानें - अपने मूल स्वरूप को, आत्मस्वरूप को; तजी. - तजकरक शामाटै . किसलिए; थाई - हुआ न पाई - नहीं प्राप्त हुईं; क्ली = पुनः; तिहनै = उसी: एहवी = ऐसी: रूडी = अच्छो : पोधा - पोया; मूकि - छोड़-तज। द्यानत भजन सौरभ २७३
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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