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________________ (२३३) चेतन! मान हमारी बतियां ।। टेक॥ यह देही तुझ लार न चलमी, क्यों पोषै जिन रतियां । चेतन.॥१॥ जीवघात" नरक जायसी, आँच सहोगे ततियां ॥ चेतन. ॥२॥ 'द्यानत' सुरग मुकति सुखदाई, करुणा आनो छतियां ।। चेतन.॥३॥ अरे चेतन, तू हमारी बात मान ले। देख यह देह तेरे साथ जानेवाली नहीं हैं। फिर भी तू दिन-रात इसका पोषण क्यों करता है? हे चेतन ! प्राणियों के जीवन का घात करने के कारण हिंसा के दोषी होकर नरक को जाना होगा और वहाँ अग्नि की दग्धता - ताप में झुलसना पड़ेगा, दुःख भोगना पड़ेगा। द्यानतराय कहते हैं कि तुम अपने हृदय में करुणा को धारण करो, जो सुख को देनेवाली है, सुखदाता है। उससे ही स्वर्ग व मुक्ति के सुखों की प्राप्ति हो सकेगी। झानत भजन सौरभ २६७
SR No.090167
Book TitleDyanat Bhajan Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachandra Jain
PublisherJain Vidyasansthan Rajkot
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Poem
File Size5 MB
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